पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२०९

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अपना अपना करके पाली देह रहा चौराया । 'हरीचंद अब तो हरि-पद भबु इंद्रिन को परितोष करन हित अघ भर-पेट कमाया । क्यों जग-कीच गड़ा है ।४५ स्वारथ लोभी बग आगे दुख रोया लाज गवाया । क्यों ने क्या करने जग में तू आया था क्या करता है लाज गई औ धरम डुबाया हाथ कट नहिं आया । गरभ-बास की भूल गया सुध मरनहार पर मरता है । साँचे मीत पतित-पावन भरि करन दीन पर दाया । खाना पीना सोना रोना और विषय में भूला 1 अरे मूढ़ 'हरिचंद भागु चलु अब तो उनकी छाया ।४५ यह तो सूअर में भी है तू मानुस बनि क्या फूला है । यारो इक दिन मौत जरूर । एक बात पशुओं से बढ़कर तुझमें पाई जाती है। फिर क्यों इतने गाफिल होकर बने नशे में चूर । तू ज्ञानी हो पापी है वहाँ पाप-गंध नहिं आती है। यही चुडैलें तुम्हें खायेंगी जिन्हे समझते हर। जो विशेष था तुझ में पशु से उसे भूल तू बैठा है। माया मोह जाल की फाँसी इससे भागो दर । तो क्यों नाहक हम मनुष्य है इस गरूर में ऐंठा है । जान बूझकर धोखा खाना है यह कौन शऊर । जान बूझ अनजान बना है देखो नहिं पतियाता है। आम कहाँ से खाओगे जब बोते गये बडूर । 'हरिचंद' अब भी हरि-पद भज राजा रंक सभी दुनिया के छोटे बड़े मजूर । क्यौ अवसरहि गावाता है ।४९ जो मांगो बांधित को मारै वही सूर भर-पूर । झूठा भगड़ा झूठा टंटा झूठा सभी गहर अपने को तू समझ जरा क्या भीतर है क्या भूला। है 'हरीचंद' हरि-प्रेम बिना सब अंत धूर का धूर ।४६ | तेरा असिल रूप क्या है तू जिसके ऊपर फूला है । हड़ी चमड़ी लह मांस चरबी से देह बनाई है। यारो यह नहिं सच्चा धरम । भीतर देखो तो घिन आवै ऊपर से चिकनाई है। छ कर या नाक मूंद कर जो कि बढ़ाया भरम । लार पीप मल मूत पित्त कफ नकटी खूट और पोटा है। बधन ही में डालेंगे यह बुरे-भले सब करम । नीली पीली नस कीड़ों से भरा पेट का लोटा है। प्रान नहीं सुधरा तो कोरा बैठे धोओ धरम । तनिक कहीं खुल जाय तो थू थू कर सब नाक सिकोड़ेगा झूठे साधन छोड़ो जी से दोन बनो तुम परम । जरा गलै या पचै मरै तो देख सभी मुंह मोड़ेगा । 'हरीचंद' हरि-सरन गहो इक यही धरम का मरम ।४७ | भरी पेट में मल की गठरी ऊपर न्हाइ सुधरता है । तिसको छू कर वायु चले तो नाक बंद सब करता है। चेत चेत रे सोवनवाले सिर पर चोर खड़ा है । मल से उपजा मल में लिपटा मति-मलीन तू घूरा है । सारी बस बीत गई अब भी मद में चूर पड़ा है । इस शरीर पर इतना फूला रे अधे मगरूरा है 1 सही अपमान स्वान-सम निरलब जग के द्वार अड़ा है। जिसके हुटते ही तू गदा मिलने ही से सजता है । जरा याद उस समय की भी कर सबसे जौन कड़ा है। 'हरीचंद' उस परमातम को, देख्नु न पाप नरक में तेरा जीवन जनम सड़ा गदहे क्यों नहिं भजता है।५० 1 विनय प्रेम पचासा १६९