पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२१०

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फूलों का गुच्छा रचनाकाल-१८८२ समर्पण मेरे प्राणप्रिय मित्र! क्या तुमने यह नही सुना है "रिक्तपाणिन वश्येद्वै राजां भेषजं गुरु' अर्थात् राजा और वैद्य और गुरू को कोरे हाथों नहीं देखना। तो मैं आज अनेक दिन पीछे तुम्हारा दर्शन करने आया हूँ, इससे यह" फूलों का गुच्छा' तुम्हारे जी बहलाने के लिए लाया हूँ जो अंगीकार करो तो परिश्रम सफल हो। यह मत संदेह करना कि मैंराजावा गुरू इनमें कौन हूं, क्योंकि मेरे तो तुम्ही राजा और तुम्हीं वैद्य और तुम्हीं गुरू हो। १४ सितंबर १९८२ ॥१९३९॥ हरिश्चंद्र केवल तुम्हारा फूलों का गुच्छा पर य खौफ़ है तुम्हें बेरहम न प्यारे कोई कहै । नहीं का बाकी वक्त नहीं है जरा न जी में शरमाओ । हँस के रुखसत करो न जी में तो कुछ भी अरमान रहे । लब पर जा है, भला अब तो प्यारे मिलते जाओ। कोई जुदा गर होय तो मिलते हैं सब जाके गले । कहां गई वह पिछली बातें कहां गया वह था जो प्यार । 'हरीचंद' से भला रस्म इतनी तो अदा करके जाओ । किधर छिपाया चाँद-सा मुखड़ा दिखलता जो यार । लब पर जाँ है, भला अब तो प्यारे मिलते जाओ ।१ बेहोशी में घबड़ा घबड़ा करके यही कहता हूँ पुकार । मर्ष बढ़ गया बहुत इससे बचना अब है दुश्वार । तुम्ही निहाँ गर हो तो जहाँ में सब ये आशकारा क्या है । करो आरजू दिल की मेरे पूरी सूरत दिखलाओ । तुम्हीं छिपे हो तो यह सब जुहूर प्यारे किसका है। लब पर जाँ है, भला अब तो प्यारे मिलते जाओ। तेरा रंग गर नहीं है तो क्या दुनियाँ में दिखलाता है। गरचे उम्न भर खराब रुसवा जलीलो परेशान रहा । तेरी सिल्क बिन कहाँ से सूरत डर शय पाता है । हमेशा मुझको तुम्हारे मिलने का अरमान रहा । तुझे हाथ गर नहीं तो खुद क्या यह जहान बन जाता है । जिया बेहयाई से अब तक कितना भी हैरान रहा । तुझे नहीं है जो मुँह तो किसका सबद सुनाता है । जान न दे दी, हमेशा कौल का तेरे ध्यान रहा । तुममें झलक गर नहीं तो किससे रोशन यह काशाना है। पै मरने के सिवा है अब तदबीर कौन वह बतलाओ । तुम्हीं छिपे हो तो यह सब जुहूर प्यारे किसका है। लब पर जाँ है, भला अब तो प्यारे मिलते जाओ। खयाल के बाहर तुम हो तो यह खयाल सब है किसका । तुम्हें कहे जो झूठा प्यारे उसे ही बनाए झूठा । तुम तो चुप हो तो फिर यह शोर जहाँ में है कैसा । मुझको तुमसे नहीं कुछ बाकी है करना शिकवा । तुम्हें कान गर नहीं है तो आवाज कौन यह है सुनता । इस्में तुम्हारा कसूर क्या है होता है किस्मत का लिखा । ध्यान के बाहर जो तुम हो तो यह ध्यान कैसे आया । मर जायेंगे पर न इस जबाँ से होगा तेरा गिला । दूर समझ से हो तो यह फिर कैसे सबने समझा है । हुई जो होनी थी इस्से जरा न जी में शरमाओ । तुम्ही छिपे हो तो यह सब जुहूर प्यारे किसका है । लब पर जाँ है, भला अब तो प्यारे मिलने जाओ। तुके न जिसने याद किया वह खुद अपने को है भूला । हम तो खैर हसरत लाखों ही जी में अपने ले के चले । । बिगड़ा बस वह न तेरा जोयाँ जो ऐ यार बना । भारतेन्दु समग्र १७०