पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२१४

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फिर मजहब में भला क्यों करता है हर शख्स कलाम। बेद वगैरह भी तो जहाँ में हैं फिर क्या है इनसे काम । इनके सिवा भी कहोगे जो कुछ सब झूठा है मुदाम । खुद झूठा जो हो उसका कहना भी सब है झूठा । तुम निर्गुन हो तो फिर यह गुन जग में सब है किस का । सभी शोर करते हैं साँप का रस्सी में यह धोखा है। मूले हैं वह, जहाँ गर दो हो तो यह बात बन । यह तो तब हो जब कि साँप रस्सी यह कायम हों दो शै। यहाँ तुम्हारे सिवा है कोई दूसरा कौन कहे । 'हरीचंद' तू सच है तो जग क्यों अपने मुँह फूठ बना। तुम निर्गुन हो तो फिर यह गुन जग में सब है किसका।१२ ढूँढ़ फिरा मैं इस दुनिया में पश्चिम से ले पूरब तक । कहीं न पाई मेरे दिलदार प्रेम की तेरे झलक । मसजिद मंदिर गिरजों में देखा मतवालों का जा दौर । अपने अपने रंग में रंगा दिखाया सबका तौर । सिवा झूठी बातो व बनावट के न नजर आया कुछ और। एक एक को टंटोला खूब तरह हमने कर गौर । तेरे न दरशन हुए मुझे मैं बहुत खोज कर बैठा थक । कही न पाई मेरे दिलदार प्रेम की तेरे फलक । जो आक़िल पंडित शायर हैं उनको भी जाकर देखा । झगड़े ही में उन्हें हमने हर दम लड़ते पाया । जिसे बुरा कहता है एक उसको कहता कोई अच्छा । कोई पुरानी लीक पीटै है कोई कहता है नया । जहाँ पै देखा नजर पड़ी हाँ यह झूठी कोरी बक बक । कहीं न पाई मेरे दिलदार प्रेम की तेरे झलक । जिनको आशिक सुनते थे उनके भी जाकर देखे ढंग । माशूकों के कहीं कुछ नजर पड़े हर तरह के रंग। वही बंधी बातें वही सुहबत है वही हैं उनके संग । गरज कि इनसे मेरी जाँ आई है अब बहुत ब-तंग । मतलब की बातों को छोड़कर और नहीं कुछ है बेशक। कहीं न पाई मेरे दिलदार प्रेम की तेरे झलक । कोई मान कर सवाब तेरा इश्क जहाँ में करते हैं। कोई गुनह से खौफ़ दोजख का करके डरते हैं। कोई मजाज़ी इश्क में अपने मतलब का दम भरते हैं। कोई मरके मिले बैकुंठ इसी पर मरते हैं। 'हरीचंद' पर इनमें से पहुंचा कोई नहिं तेरे तलक । कहीं न पाई मेरे दिलदार प्रेम की तेरे फलक ।१३ प्रेम-फुलवारी [कुछ अंश नवोदिता हरिश्चन्द्र चंद्रिका में सन् १८८४ में प्रकाशित, पूरा ग्रंथ मेडिकल हाल प्रेस से सन् १८८३ में ही मुद्रित हो चुका था । ] समर्पण मेरे प्यारे, तु, कुंजो में वा नदियो के तटो पर फिरते प्रायः देखा है और इससे निश्चय होता है कि तुम बड़े सैलानी हो। पर यो मन-मानी सैल करने मे तुम्हारे कोमल चरनो ने जो कंकरियाँ गड़ती हैं, वह जी मे कसकती हैं। इससे मैने रच रच कर यह फुलवारी बनाई है, सीचते रहना, यह मला मै किस मुंह से कहूँ। पर जैसे इधर उधर सैल करते फिरते हो, वैसे ही कमी कमी भूले भटके इस" फुलवारी" मे भी आ निकलोगे तो परिश्रम सफल होगा। हरिश्चंद्र केवल तुम्हारा भारतेन्दु समग्र १७४