पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२१५

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प्रेम-फुलवारी 'हरीचंद' खींचौ अब कोउ विधि व्यड़ि पाँच अरु सात।५ भरति नेह नव नीर नित बरसत सुरस अथोर । नाहिं तो हंसी तुम्हारी हवैहै । जयति अपूरब घन कोऊ लखि नाचत मन मोर ।१ तुमही पै जग दोस धरैगो मेरो दोस न दैहै । जेहि लहि फिर कछु लहन की आस न चित में होय । वेद पुरान प्रमान कहो को मोहिं तारे बिनु लैहै। जयति जगत-पावन-करन प्रम बरन यह दोय ।२ तासों तारो 'हरीचंद' को नाहीं तो जस जैहै ।। चंद मिटै सूरज मिटै मिटै जगत के नेम । फैलिहै अपजस तुम्हारो भारी । यह दृढ़ श्री हरिचंद' को मिटै न अबिचल-प्रमे ।३ फिर तुमकों कोऊ नहि कहिहै मोहन पतित-उधारी । वेदादिक सब झूठ होइगे व जैहै अति ख्यारी । प्रेम-फुलवारी की भूमि तासों कोउ बिधि धाइ लीजिए 'हरीचंद' को तारी ७ राग बिहाग तुम्हरे हित की भाखत बात । श्री राधे मोहिं अपुनो कब करिहो। कोउ बिधि अब की तार देहु मोहि नाहीं तो प्रन जात । जुगल-रूप-रस-अमित-माधुरी कब इन नैननि भरिहौ। बूंद चूकि फिरि घट ढरकावत रहि जैहो पछितात । कब या दीन हीन निज जनपै ब्रज को बास बितरिही। बात गए कछु हाथ न ऐहै क्यों इतनों इतरात । 'हरीचंद' कब भव बूड़त तें भुज धरि धाइ उबरिहौ ।१ | चूक्यो समय फेरि नहिं पैही यह जिय धरि के तात । अहो हरि बस अब बहुत भई । तारि लीजिए 'हरीचंद' को छोड़ि पांच अरु सात ।८ अपनी दिसि बिलोकि करुना-निधि कीजै नाहिं नई । भरोसो रीझन ही लखि भारी । जौ हमरे दोसन को देखो तौ न निबाह हमारो । हमहूँ को विश्वास होत है मोहन पतित-उधारी । करिकै सुरत अजामिल-गज की हमरे करम बिसारो । जो ऐसो सुभाव नहिं होतो क्यों अहीर कुल भायो । अब नरिं सही जात कोऊ बिधि धीर सकत नहिं धारी। तजि कै कौस्तुभ सो मनि गल क्यों गुंजा-हार धरायो। 'हरीचंद' को बेगि धाइकै भुज भरि लेहु उबारी ।२ क्रीट मुकुट सिर छोड़ि पखौआ मोरन को क्यों धार्यो। पियारै याको नांव नियाव । फेंट कसी टेटिन पै मेवन को क्यों स्वाद बिसार्यो । जो तोहि भजे ताहि नहिं भजनो कीनो भलो बनाव । ऐसी उलटी रीझ देखि कै उपजत है जिय आस । बिनु कछु किये जानि अपुनो जन दूनो दुख तेहि देनो । जग-निदित 'हरिचंदहु' को अपनावहिंगे करि दास ।९ भली नई यह रीति चलाई उलटो अवगुन लेनो। सम्हारहु अपने को गिरधारी । 'हरीचंद' यह भलो निबेर्यो ह्वैकै अंतरजामी । मोर-मुकुट सिर पाग पेंच करि राखहु अलक संवारी । चोरनि खाँडि छाँड़ि के डाँडौ उलटो धन को स्वामी ।३ हिय हलकत बनमाल उठावहु मुरली धरहु उतारी । जानते जो हम तुमरी बानि । चक्रादिकन सान दे राखो कंकन फैसन निवारी । परम अबार करन की जन पै, हे करुना की खानि । नूपुर लेहु चढाइ किकिनी खींचहु करहु तयारी । तो हम द्वार देखते दूजो होते जहाँ दयाल पियरो पट परिकर कटि कसि के बांधौ हो बनवारी । तो हम द्वार देखते दूजो होते जहाँ दयाल । हम नाहीं उनमें जिनको तुम सहजहि दीने तारी । करते नहिं विश्वास बेद पै जिन तोहिं कयौ कृपाल । बानो जुगओ नीके अब की 'हरीचंद' की बारी ।१० अब तो आइ फंसे सरनन मैं भयो तुम्हारो नाम । हम तो लोक-भेद सब छोड्यौ । 'हरीचंद' तासों मोहिं तारो बान छोड़ि घनश्याम ।४ जग को सब नाता तिनका सो तुम्हरे कारन तोइयो । प्यारे अब तो सही न जात । छाँड़ि सबै अपुनो अरु दूजेन नेह तुमहिं सों जोड्यो । कहा करै कछु बनि नहिं अवत निसि दिन जिय पछितात। हरीचंद पै केहि हित हम सों तुम अपुनो मुख मोड्यौ।११ जैसे छोटे पिंजरा में कोउ पछी परि तड़पात । जो पै सावधान हो सुनिए । त्योंही प्रान परे यह मेरे छूटन को अकुलात । तौ निज गुन कछु बरनि सुनाऊं जो उर मैं तेहि गुनिए । कछु न उपाव चलत अति ब्याकुल मुरि मुरि पछरा खात।। हम नाहिन उन मैं जिनको तुम तारे गरब बढ़ाई ।। प्रेम फुलवारी १७५