पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२१६

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06 माता-पिता धन-धाम मीत जगनिज स्वारथ को होय। पर हरि संग लपटानी वा कैसे भसम पर। 'हरीचंद' जो सोक घिरे तो न मरे क्यों रोष ।१६ जिन अवनन हरि-बचन सुन्यो है ते मद्रा कैसे पहिरै। | जिन बेनिन हरि निजकर गंथी जटा होहने वयो निकरें। | जिन अपरन हरि-अमृत पियो अब ते शानहि कैसे उच।। 'हरीचंद तो क्यों सब तुमरे प्रेमाडे जग में साने 1१७'हरीचंद जा सेज रमेहरि तहाँ बघम्बर क्यों बितरे।२४, इन प्रानन को नाहि भरोसोए है चलन तयार

बोलि लेहु पृथुराजहि तो कछु मो गुन परे सुनाई। , हम वह नाहि कहा, के मुरठित लखि तुम भुज न गहे। चित्रगुप्त चौ बदि हमरे गुन निज खातन लिखिलेही। कहाँ गई वे पिछली अतियाँ जो तुम बचन कहे तो हम पाप आपुने तिनको हारि तुरत सब देहीं । तो तुम तनिक मलिन मुख देखत छिन नाहिं सहे । सक समै औगुन गिनिवे को नागराज प्रन कीनी । सो 'हरिचंद' प्रान बिहुरत कित बदन छिपाय रहे १८ नहिं गिनि गए सेस बहु रहि गयो सोई नाम तब लीनो। एहि उर हरि-रस पूरि गयो सबै कलत हरि-कृपा बड़ेरी अथ ही परिहि लखाई । तन मैं मन में जिय मैं सब ठाँ कृष्ण हि कृष्ण भयो । चै जो मो उध-मय न भागि के रहै न हृदय बुराई । भरयो सकल तन-मन तौद्र नहि मान्यौ उमड़ि षष्ट्यौ। बहुत कहाँ तो कहीं प्रानपति इतने ही सब मानी । नेनन सो बैनन सो रोक्यो नाहिन परत रक्ष्यो । 'हरीचंद' सो भयो सामना नीके जुगलो वानौ ।१२ | लघु घट तामै रूप-समुद राख्यो क्यों न उमगि निकर । पिया हो केहि विधि अब करों। तापे लाए ज्ञान कहो तेहि जिय कित लाइ धरै । मति कहूं कि होइ ब-अदयी बाड़ी डरन डरों। कौन कहे रखिये की उलटो बहि हे या धार । मोरठि सो मेला सो लागत नर-नारिन को भारी । 'हरीचद' मधुपुरी जाहु 'पैहो पार ।११ नहात खात बन जात कुंज में केहि विधि सेहुँ पुकारी । रहे क्यो एक म्यान असि दोय महल टहल में रहत लुभाने सांझहि सों सब राती । जिन नेनन में हरि-रस छायो तेहि क्यों भावे कोच । ताई को विधन बने कछु कहि के एहि डर घरकत शाली। जा तन-मन में रमि रहे मोहन तहाँ ग्यान क्यों आवे । बड़े बड़े मुनि देव ब्रहम शिष जहं मुजरा नहिं पाये चाहो जितनी बात प्रबोधो हयां को जो पति आवे । उहं हम पामर जीव कही क्यों घुसि के अरव सुनावे 1 अमृत खाइ अब देखि इनारुन को मूरख जो भूलै । एक बात बेदन की सुनिये कटु भरोस जिय आयो । 'हरीचंद' अज तो कदली-बन काटो तो फिरि फूले ।२० हरीचंद पिय सहस-अपन तुम सुनतहि अतुर घायो।१३ गमन के पहिले ही मिल जाहु । प्रेम-फुलवारी के वृक्ष नाही तो जिय ही रहि है प्राननाय तुमसो मितिवे को कहा जुगति नहिं कीनी । जान देहु सब और चित्त के मिलि रस करन उमाहु पचि हारी कष्ट काम न आई उलटि सबै विधि दीनी । | हरीचंद' सूरति तो अपनी बारेक फेर दिखाहु २१ हेरि चुशी बहु इतिन को मुत्त याह सबन को लीनी । नैन भरि देखन हूँ मैं ।। तब अब सोचि-विचारि निकाली जुगति अचूक नवीनी। केसे प्रान राखिये सजनी नाहि परत कछु जानि । |तन परिहरि मन दे तुष पद है लोक गुनता श्रीनी। या ब्रज के सब लोग चवाई त्यों बैरिन कुल-कानि । 'हरीचंद निघरक वितरोगी अघर-सुधा-रस-मीनो।१४ | देखत ही पिय प्यारे को मुख करत चाप बचानि । इन नैनन को यही परेचो। मितिबो दूर रह्यो दिन यातहिं बैठि करहिं सब छानि । वह सुख देखि पिया-संगम को फेर बिरह-दुख देखो। 'हरीचंद केसी अब की या ललचौही पानि ।२२ नहिं पाखान भए पिय बिछुरत प्रेम-प्रतीत न लेखो। प्राननाथ जो पै ऐसी ही तुम्हें करन ही हासी । तौ पहिले ही क्यों न कल्यौ हम मरती देगल फाँसी । देख्यो एक टोय। | प्राननाथ विनु विरह संघाती और नाहिने कोय । | हरीचंद ऐसी नहि जानी हे हरि विसूपासी ॥२३ हरि संग भोग किया जा तन सों तासों कैसे जोग कर तिन्हें मंदि क्यों पलक परे । केहि फेरह मिशि जैये इक बार । तुव मुख-देखन लाहु । 'हरीचद निरला स्व रोवल यह उल्टी गति पेखो।१५ जिय-जारन क्यों जोग पठायो लोरि प्रीति तिनुका-सी। पियारे क्यों तुम आवत याद छूटत सकल काच जग के सण मिटत भोग के स्वाद । जब लौ लुम्हरी याद रहे नहि तब तो हम सब लायक। तुमरी याद होत ही चित में चुभत मदन के सायक तुम जग के सब कामन के श्ररि हम यह निहचे जाने । जिन नैनन हरि-रूप बिलोक्यो जा हिय सो हरि-हियो मिल्यो है शिवरे ऐसे तो न रहे। भए कठोर अथै तुम तैसे कबहुँ न हे। 700 2 भारतेन्दु समग्र १७६