पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२२०

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केलिकोप अरुकाव समय तजि सुख में तुम रुखलहियो क्यों न निषाही मम जीवन लौ परम प्रेम की रीति । | प्राननार्थ भेटे मारग में चितयो प्रम-भरी द्ग-कोर इतने पै तोहि न आई मेरी बार प्रतीत । करों निशावरि प्रान जीवनधन 'हरीचंद बलिहारी रायरे मली करी यह नीत ६४ तनिकाह निरखत भौंह मरोर । बिहरिहे जग-सिर पै दै पाँच श्याम सरूप सुधा-रस सानी बानी बोलत नंदकिशोर। एक तुम्हारे हो पिय प्यारे छोड़ि और सब गाँव । कोटि काम लावन्य मनोहर चितवत प्रेम भरी दृग-कोर। निवको बताओ विगरी धरो सबै मिलि नाप । नेह भयो सब अंग सलोनो आनंद-रस भीज्यो प्रति पोर। 'हरीचंद' नहि कबहुँ किडे हम यह अब को दाँव ॥६५ सिद्ध होयगो सगरो कारण प्रातहि मिलो प्रानपिय मोर । निछावरि तुम पे सो कहा की 'हरीचंद जुग जुग चिरजीओ सब कष्ट थोरो लगत जगत में कैसे इनको लीवे । मांगत ग्यालिनि अंचल छोर ७० राव-पाट घर-बार देह मन धन संबंधी जात 1 आजु चलि कुंचन देखहु छाई विमा बुन्हाई । नेम-धरम कुश-कानि खाज सब ठून से न लखात । पत्र रध में घिर घिर धावत ता तर सेव पिठाई । प्रेम-मरी तुमरी चितवनि की समता को जग कोन । समय निसीय इकत भयो अति 'हरीचंद' तासो नहिं कहिए कछु रहिए गहि मौन ।३६ कहुँ कहुँ खग बोलत सुख पाई। न जानों गोविंद कासों रीमे शलिता दूर बजाक्त बीना मधुर मृदंग परत सुनाई । जब सो तप सो ज्ञान ध्यान सो कासों रिसि करि खीम। आलिंगन परिरमन को सुख लूटत तहाँ जुगल रसदाई बेद पुरान भेद नहिं पायो कस्यो आन की आन । 'हरीचंद पारत तन मन सब गावत केलि बधाई ७१ कह जप तप कीनों गनिका नै गीप कियो कह दान कहत ही बार करोरन होहु चिरजी नित नेमी ज्ञानी दूर होत है नहि पावत कहुँ ठाम । नित प्यारे देखि सिरा हियो । टीठ लोक बेदहु ते निदित पुसि धुसि करत कलाम । एक एक आसिख सों मेरे कहुँ उलटी कहुँ सीधी कहुँ दोहुन न्यारी 1 अरब खरष जुग जियो । 'हरीचंद काहू नहि जान्यो मन की रीति निकारी ।६७ | जब लो रवि-ससि-भूमि म-समुद- प्रेम-फुलबारी के फल घुव-तारा-गन थिर कियो । 'हरीचंद' तब तो तुम प्रीतम रे मन करू नित नित यह ध्यान । सुंदर स्प गौर स्वामल छवि जो नहि होत बखान । अमृत पान नित पियो ।७२ मुकुट सीस चंद्रिका बनी कनफून सुकुडल कान । लाल के रंग रंगो तू प्यारी कटिकाधिनि सारी पग नूपुर बिटिया अनवट प्रान । याही ते तन पारत मिस के सदा कसूमी सारी । कर ककन चूरी दोल भुव पै बाबू सोभा देत । लाल अधर कर पद सब तेरे लाल तिलक सिर धारी । केसर खोर बिंदु सेंदुर को देखत मन हरि लेत । नैनन में डोरन के मिस झलकत लाल बिहारी । मुख पे अशक पीठ पे बेनी नागिनि सी लहरात । न-मै मई नहीं सुष तन की नख-सिख तू गिरधारी । चटकीलो पट निपट मनोहर नील-पीत फहरात । 'हरीचंद जग विदित मई यह प्रेम-प्रतील तिहारी ।७३ मधुर मधुर अधरन बसो-धुनि तैसी ही मुसकानि । हमारे ब्रज की रानी राधे दोउ नैनन रस-भीनी चितपनि परम हया की खानि । जिन निज बस करि मोहन सह सब ब्रज-नर-नारी नाधे ऐसो अदभुत भेष चित्तोकत चकित होत सब आय परम उवार घाह सुमिरन के पहिलेहि नासत याये । 'हरीचंद मिन जुगश-कृपा यह तख्यो कोन पे पे जाय कहि 'हरिचंद' सोच उनकी मोहि श्री राधे चंद्रमुखी सुव नाम तदपि चकोर-मुखी सी व्याकुल निरखत ससि-धनश्याम । बे नहिं इनहि अराधे ।७४ तैसेहि जबपि-आप नव धन से मोहन कोटिक काम । सधियो याद दिवावति रहियो । लपि दरस तुथ प्यास नैन जुग चातक रहत मुदाम समय पाइके सबा हमारिह कबहुँ जुगल सौ कहियो । कौन कहे के समुझे वामें जो कुछ करे कलाम । 1 'हरीचंद' हो मोन निरथिए जुगलरूप सुखधाम ।६९ करि मनुहार जोरि कर दोऊ मेरी विथा उलहियो । जो कष्ट क्रोध करे तो ताको बिनती कर कर सहियो । आबु महा मंगल भयो भोर । कहियो को पाइकै बाहे 'हरिचंदा' की गहियो 1998 भारतेन्दु समग्र १५० 16C