पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२२२

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'जो आनंद छिप्यो हो अब लौ तोहिं प्रगटि दिखरायो । मर जादा परवाह दुहुँन सों प्रेम छानि बिलगायो । भटकत फिरत श्रुतिन के बन मैं परम पंथ नहिं सूझयो। जो कछु कयौ कहूँ कोउ सास्त्रन ताको मरम न बूझयो। मक्ति कही तो नेह बिना की नेहहु व्यसन बिना को । व्यसनहु कयौ जुपै कहुँ कहुँ तौ परवन चार दिना को । परम नेह सों एक भाव रस हनहीं प्रीति दिखाई। 'हरीचंद' भक्तन-हिय बाजी जासों प्रम-बघाई ।९१ जय जय भक्त-बछल भगवान । निज जन पच्छ रच्छ-कर नित प्रति सहजहि दयानिधान। अधम-उधारन जनि-निस्तारन निस्तारन जस-गान । 'हरीचंद' करुनामय केसव जन ब्रज-जन के प्रान ।९२ जय जय करुनानिधि पिय प्यारे । सुंदर श्याम मनोहर मूरति ब्रज-जन लोचन-तारे । अगिनित गुन-गन गने न आवत माया नर-बपु धारे । 'हरीचंद' श्रीराधा-वल्लम जसुदा-नंद-दुलारे ।९३ dal CELL कृष्ण-चरित्र [रचना-काल सन् १८८३] कृष्ण-चरित्र करत मनोरथ बिविध मांति सब साजें मंगल-साज । आजु हरि छलि के लाए प्यारी । 'हरीचंद' तिनको दरसन दे दुख मेट्यो ब्रजराज ।३ पार उतारन मिस नौका पै रसिक-काज गिरिधारी । हरि हम कौन भरोसे जीएँ । औघट घाट लगाइ नाव निज बिहरत हरि मनुहारी । तुमरे रुख फेरे करुनानिधि काल-गुदरिया सीएँ। 'हरीचंद' सखि लखत चकित चित देत प्रान धन वारी।१ यों तो सबही खात उदर भरि अरु सब ही जल पीएँ । जुगल-छबि नैनन सों लखि लेहु । पैधिक धिक तुम बिन सब माधो बादिहिं सासा लीएं। ठाढ़े बाहुँ जोरि कुंजन मैं अवसर जान न देहु । नाथ बिना सब व्यर्थ धरम अरु अधरम दोऊ कीएं। साँझ समय आगम बरसा के फूल्यौ बन चहुँ ओर । 'हरीचंद' अब तो हरि बनिहै कर-अवलंबन दीएँ ।४ लहरत कालिन्दी जल झलकत आवत मन्द झकोर । नाथ बिसारे तें नहिं बनिहै । प्रथम फूल फूल्यौ आमोदित रसमय सुखद कदंब । तुम बिनु कोउ जग नाहिं मरम की पीर जिया जो जनि है। ता तट ठाढ़े जुगल परसपर किए बाहुँ-अवलंब । हँसिहै सब जग हाल देखि कोउ नाहिं दीनता गनिहै । पसरित महामोद दसह दिसि मत्त भौर रहे भूलि । उलटी हमहिं सिखावनि दै है मेरी एक न मनिहे। 'हरीचंद' सखि सरबस वायो | तुम्हरे होइ कहाँ हम जैहैं कौन बीच मैं सनिहै । सो छबि लखि जिय फूलि ।२ 'हरीचंद' तुम बिनु दयालता और कोउ नहिं ठनिहै ।५ आजु ब्रज भई अटारिन भीर । नवल नील मेघ-बरन दरसत त्रयताप-हरन । आवत जानि सुरथ चढिके पथ सुंदर श्याम-सरीर । अटा झराखन छज्जन छाजन गोखन द्वारन द्वार । परसत सुख-करन भक्त-सरन जमुन-बारी । सोभित सुंदर दुकूल प्रफुलित कल कमल फूल मुख ही मुख लखिए जुवतिन के सोभा बढ़ी अपार । मेटत भव-सूल फूली मनौ रूप-पुलबारी हरि-हित साधि सनेह । कोमल बर बालु रचित बेदि बिबिध तटनि खचित चंदन की बंदन-माला बांधी ब्रजप्रति गेह । भक्ति-मूल ताप-हारी । भारतन्तु समग्न १८२