पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२२३

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संचारी। बिहारी । निव लता-प्रतान सचित नचित भंग भारी । चंचल चल लोल लहर कलि कल करबाल कहर जग-जन जम-जाल जहर भक्त्तन-सुखकारी । जल-कन लै त्रिविध पौन करत जबै कितहुँ गौन । परसत सुख-भौन सीत सोहत अवगाहत मनुज-देव करत सकल सिद्ध सेव जानत नहिं भेव भेद बेद मौन-धारी । ब्रजवर-मंडल-सिंगार गोप-गोपिका अघार प्राननाथ-कंठहार जुगल बर पुष्टि-सुपथ पुष्टि करत सेवा को फल वितरत 'हरीचंद' जस उचरत जयति तरनि-बारी । आजु सुर मुनि सकल ब्रजपुराधीश को रत्न-अभिषेक बर-बिधि सो करत । सकल तीरथ विमल गंग-जमुनादि नद चतुसांगर-मिलित नीर कलसन भरत । रिग-यजुर-साम-अथर्वनिक वेद-ध्यनि स्तोत्र-पौराण-इतिहास मिलि उच्चरत । शंख-मेरि-पणव-मुरज-ढक्का बाद घनित घंटा-नाद बीच बिच गुजरत । बिबिध सव्वौषधी मलय-मृगमद-मिलित बारि बनसार-केसर सुगंधित परत । कुसुम रल तुलसि मिश्रित सुमंत्रित सबिध पूर्व अधिवासितोदक घटन तें ढरत । श्याम अभिराम तन पीत पट सुभग अति बारि सों अंग सटि लखत ही मन हरत् । झरित कल केस कुचितन तें नीर-कन मनहुँ मुक्तावली नवल उज्जल भरत । बदत बंदी बिरद सूत चारन चारू चरित गावत खरे तान मानन भरत । देत आसीस द्विज हस्त श्रीफल किए सुर जुहारत खरे रुख लिए जिअ डरत । घोष-सीमंतिनी गान मंगल शब्द श्रवन-पुट जात दुख दुरित दारिद दरत । दास 'हरीचंद' के हृदय-मधि तौन छबि खचित वल्लभ-कृपा-बल न टारे टरत ।७ मेरे प्यारे जी अरज लीजो मान हो मान । अव तुमरो दुख सहि न सकत हम मिलि आओ मीत सुजान हो जान । एक बेर ब्रज में फिर आओ इतनो देहु मोहिं दान हो दान । 'हरीचंद' अब चलन चहत हैं तुम बिन मेरे प्रान हो प्रान ।८ प्रात समै प्रीतम प्यारे को मंगल बिमल नवल जस गाऊं सुन्दर स्याम सलोनी मूरति भोरहि निरखत नैन सिराऊं। सेवा करौं हरौं त्रैविधि-भय तब अपने गृह-कारज जाऊँ । 'हरीचंद' मोहन बिनु देखे नैनन की नहिं तपत बुझाऊँ ।९ प्रात समै हरि को जस गावत उठि घर घर सब घोष-कुमारी । कोउ दधि मथत सिंगार करत कोउ जमुना न्हान जात कोउ नारी । हरि-रस मगन दिवस नहिं जानत मंगलमय ब्रज रहत सदा री। 'हरीचंद' लखि मदन-मोहन-छबि पुनि पुनि जात सबै बलिहारी ।१० हरि को मंगलमय मुख देखो । सुंदर स्याम अंग-छबि निरखत जीवन जनम सुफल करि देखो । देखि प्रथम पिय प्यारे को मुख तब जग और काज अवरेखो । 'हरीचंद' ब्रजचंद लखें बिनु जगतहि बादि बृथा करि पेखो १६ आनंद-निधि सुख-निधि सोभा-निधि वल्लभ-बदन बिलोको भोर । मंगल परम भक्त-सुखदायक तृपित-करन जन-नेन-चकोर ।। सकल कला-पूरन गुन-सागर नागर नेही नवल-किसोर । 'हरीचंद' रसिकन के सर्वस इन पैवारों मैन करोर ।१२ हरि मोरी काहें सुधि बिसराई । हम तो सब विधि दीन हीन तुम समरथ गोकुल-राई । मों अपराधन लखन लगे जौ तौ कछु नहि बनि आई । हम अपुनी करनी के चूके याहू जनम खुटाई । सब बिधि पतित हीन सब दिन के कह लौं कहीं सुनाई। 'हरीचंद' तेहि भूलि बिरद निज जानि मिलौ अब धाई ।१३ देखो माई हरि बू के रथ की आवनि । चलनि चक्र फहरानि धुजा को वह तुरगन की धावनि । जापै जुगल दिए गल-बाँही सोभित नैन मिलापनि । बीरी खानि चहूँ दिसि चितवनि हँसि मुरि के बतरावनि कृष्ण चरित्र १८३