पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२२७

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जिस कीरति चिर नाम मान पैचंचल चित कहं मोड़ें। मेरो हठ राखो हठीले लाल भए बिरागिहु भक्त सिद्ध कहवावन की रुचि बाढ़े। तुम बिनु मान कौन मेरो रखिहे समुझहु जिय गोपाल। रचि रचि छन्द नाम करिबे को इच्छा तव जिय काढ़े। हमको तो तुमरो बल प्यारे तुव अभिमान दयाल । तासों याहि जीतिबो दुरघट जानि वतन यह लीजै । पै तुमही ऐसी जो करिहो कहें जैहें ब्रज-बाल । 'हरीचंद' घनस्याम-मिलन की हौस करोरन कीजै।४० एक बेर ब्रज को फिरि आओ लखि गौअन बेहाल । 'हरीचंद' बरु फेर जाइयो मधुपुर कृष्ण कृपाल ।४६ बे दिन सपन रहे कै साँचे । जे हरि सँग बिहरत याही बृज बीति गए रंग-राचे । राखिए अपुनेन को अभिमान । कहाँ गई वह सरद रैन सब जिन मैं हरि-सँग नाचे । तुव बल जो जग गिनत न काहू दीजै तेहि सनमान । कहं वह बोलन-हँसन-मिलन-सुख मिले जौन विनु जांचे। तुम्हरे होय सह इतनो दुख यह तो अनय महान । हाय दई केसी कीनी दुख सहत करेजे काँचे । तुमहि कलक हमै लज्जा अति कहिहे कहा जहान । 'हरीचंद' हरि-बिनु सूनो बृज एक बेर फिरहू अज आओ देहु जीव को दान । लखनहि हित हम बाँचे ।४१ 'हरीचंद' गिरि कर-धारन की करिके सुरति सुजान।४७ हरि हो अब मुख बेगि दिखाओ । ऊघो अब वे दिन नहिं ऐहैं। सही न जात कृपानिधि माधो एहि सुनतहि उठि घाओ। जिन मैं श्याम संग निसि-बासर लखि निज जन ड्रबत दुख-सागर क्यों न दया उर लाओ। छिन सम बिलसि बितेहैं। आरत बचन सुनत चुप ह्वै रहे निठुर बानि बिसराओ। वह हंसि दान मांगनो उनको करुनामय कृपाल केसव तुम क्यों निज प्रनहि डिगाओ। अब हम लखन न पैहैं। लखि बिलखत 'हरिचंद' दुखी जमुना न्हात कदम चड़ि छिपि अब जन क्यों नहिं धीर धराओ ।४२ हरि नहिं चीर चुरैहैं। वह निसि सरद दिवस बरखा के यह मन पारद हुसों चंचल । फिर विधि नाहि फिरैहैं। एक पलक मैं ज्ञान विचारत दूजे मैं तिय-अचल । वह रस-रास हँसन-बोलन-हित ठहरत कतहुँ न डोलत इत उत रहत सदा बौरानो । हम छिन छिन तरसेहैं। ज्ञान ध्यान की आन न मानत याको लपट बानो । वह गलवाही दे पिय बतियाँ तासों या कहें कृष्ण-बिरह-तप जो कोउ ताप तपावै । 'हरीचंद' सो जीति याहि हरि-भजन-रसायन पावे।४३ अब नहिं सरस सुनैहैं। 'हरीचंद' तरसत हम मरिहै आजु अभिषेकत पिय को प्यारी । तऊ न वे सुधि लेहें ।४८ धरि दृग ध्यान नवल आँसुन के भरि भरि उमगे बारी । कज्जल मिलित चारु मृगमद से बिरह-परब लखि मारो। हरि गिनु बुज बसियत केहि माएँ । बरखत गलित कुसुम बेनी तें सोई फूल-झर डारी । जीवत अब लौ बिनु पिय प्यारे इन अँखियन दरसाएँ । व्याकुल कल नहि लहत तनिक सुख हाय मंत्र उच्चारी। केहि सुख लागि जियत हम अब लौं यह नहिं परत लखाई । 'हरीचंद' लखि दुखित सखी-जन करिन सकत उपचारी ४४ बिनु बृजनाथ देखि बृज सूनो प्रान रहत किमि माई । बिनु बृजनाथ देखि बृज सूनो प्रान रहत किमि माई । जनमतहि क्यों हम नाहि मरी। वह बन-बिहरन कुंज कुंज मैं सपनेह नहि देखें। सखि बिधना विध ना कछु जानत उलटी सबहि करी । जधौ जोग सुनन तुब मुख सौ प्रान रहे एहि लेखें। हरि आछत प्रज चार चवाइन करि निदा निदरी । बिनु प्रिय प्राननाथ मन-मोहन आरत-हरन कन्हाई। तिन भय मुखहु लखन नहि पायो होसहि रहत मरी । 'हरीचंद' निरलज जग जीवत हम माथी की नाई ।४९ अब हरि सो ब्रज छोड़ि अनत रहे बिलपत बिरह जरी। यह दुख देखन ही जनमाई बारेंहि विपत परी । सुख केहि कहत न जान्यो सपनेहु दुख ही रहत दरी । देत असीस सदा चित सों यह 'हरीचंद' मोहिं सिरजि बिधिहि साहिबी रावरी रोज बनी रहै । नहिं जानौ कहा सरी ।४५ रूप अनूप महा धन है कृष्ण चरित्र १८७ 15