पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२२९

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श्री राजकुमार-सुस्वागत-पत्र* (रचना काल : सन् १८६९) जाके दरस-हित सदा नैना मरत पियास । सो मुख-चंद बिलोकिहैं पूरी सब मन आस ।१ नैन बिछाए आपु हित आवहु या मग होय । कमल-पाँवड़े ये किए अति कोमल पग जोय ।२ हे हे लेखनी, आज तुझे मानिनी बनना उचित नहीं । बड़े बड़े नेत्रों से किस के दर्शन की आशा में तृण छोड़ है, क्योंकि इस भूमि के नायक ने चिर-समय पीछे | छोड़ के खड़े हो रहे हैं । खिड़कियों में स्त्री लोग किस अपने प्यारी की सुधि ली है। के हेतु पुतली सी एकाग्र-चित्त हो रही है और मंगल का आज तू भी आगत-पतिका बन और सोरह झंगार | सब साज किस के हेतु सजा है । सुना है कि हम लोगों करके इस पत्र रूपी रंगशाला में ऐसी मनोहर और | के महाराज-कुमार आज इघर आनेवाले हैं, फिर क्यों मदमाती गति से चल कि सब देखनेवाले मोहित हो होके न इस भारतवर्ष के उद्यान में ऐसा आनंद-सागर उमगे। मतवाले से झूमने लगें और ऐसी फूलों की झड़ी लगा भारतवर्ष के निवासी लोगों को अब इससे विशेष और जिससे महाराज-कुमार के कोल चरनों को यह पत्रिका | कौन आनंद का दिन होगा और इससे बढ़ के अपने एक फूल के पाँवड़े सी बन जाय । चित्त का उत्साह और आधीनता प्रगट करने का और आज क्या कारण है कि उपवनों में कोकिल ने धूम | कौन सा समय मिलेगा । कई सौ बरस से हम लोग सी मचा रखी है और भंवरे मदमाते होकर इधर से चातक की भांति आसा लगाए थे कि वह भी कोई दिन उधर दौड़े दौड़े फिरते हैं ? वृक्षों को ऐसा कौन सा सुख | ईश्वर दिखावैगा, जिस दिन हम अपने पालनेवाले को हुवा है कि मतवालों की भांति झुक झुक के भूमि चूम इन नेत्रों से देखेंगे और अपना उत्साह और प्रीति प्रगट रहे हैं और लता सब ऐसी क्यों प्रमुदित हैं कि कुलटा | करेंगे । धन्य उस जगदीश्वर को जिसने आज हमारे नायिका की भांति लाज छोड़ छोड़ के अपने नायक से | मनोर्थ पूर्ण करके हम को उस अपूर्व निधि का दर्शन लिपट रही हैं और फलों ने ऐसा क्या सुख पाया है कि | कराया जिस का दर्शन स्वप्न में भी दुर्लभ था । धन्य अपना स्थान छोड़ छोड़ के उमगे हुए पृथ्वी पर टपके | आज का दिन और धन्य यह घड़ी जिसमें हमारे मनोर्थ पड़ते हैं और फूलों ने किस के आगे का समाचार सुन | के वृक्ष में फल लगा और राजकुंवर को हम लोगों ने लिया है कि फूले नहीं समाते हैं । मालिनैं श्रृंगार करके | अपने नेत्रों से देखा । इस समै हम लोग तन मन धन किस के हेतु यह कोमल और अनेक रंग के फूलों की | जो कुद न्योछावर करै थोड़ा है और जो आनंद करें सो माला खूथ रही हैं और यह ठंढी पौन किस के अंग को | बहुत नहीं है । ईश्वर करै जब तक फूलों में सुगंधि छ्र के आती है कि सब के मन की कली सी खिली जाती | और चंद्रमा में प्रकाश है और पविनी-नायक सूर्य जब है। नदियों और सरोवरों के पानी क्यों उछल उछल | तक उदयाचल पर उगता है और गंगा-जमुना जब तक के अपना आनंद प्रकाश कर रहे है और उनमें केवल | अमृत धारा बहती है तब तक इनके रूप-बल-तेज और की कलियाँ किस की स्तुति के हेतु हाथ बांधे खड़ी है। राज्य की वृद्धि होय, जिसमें हम लोग इनके कर-कल्प- हंस और चकोर ऐसी कुलेल क्यों करते हैं और वर्षा | वृक्ष की छाया में सब मगोर्थ से पूर्ण होकर सुखपूर्वक बिना मोर क्यों नाच रहे है । पक्षी लोग बड़े उत्साह से | निवास करें। किस के आने की बधाई गाते है और हिरन लोग अपने

इयूक आव एडिनबरा के सन् १८६९ ई. में भारत आगमन के मौके पर लिखा गया था । छोटे प्रबंध तथा मुक्तक रचनायें १८९