पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२३५

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साँच कहत करि सपथ तिहारी । तुम त्रिभुवन के नाथ कहावत तासों ताहि बिलोकहु जाई । 'हरीचंद' सुनि अति अचरज सों तुरत चले उठि त्रिभुवन-राई ।४ मन-मोहन पूजन-साज लिये दरसन को देवी के आए । तहाँ भीड़ देखि नर-नारिन की मन में अति ही बिस्मै छाए । इक आवत हैं इक बात चले इक पूजत माला-फूल लिए। इक अस्तुति दोउ कर जोरि करें इक मुख सों जै-जैकार किए। तिन मोहन सों यह बात कही तुमहूँ पूजा को साज करो। मुंह-मांगो फल बरदान मिले जो तनिकहु उर मैं ध्यान धरौ । सुनिके मनमोहन देवी के तब पूजन को सब साज कियो । 'हरिचंद' सुअवसर देखि तहाँ बरदान भक्ति को मांग लियो ।५ न्यौते काढू गाँव जात ही जसुमति हु निकसी तहं आई । भीड़ देखि पूछत सखियन सों यहाँ जुटीं क्यों लोग-लुगाई । काह कयौ अजू या बट सो देवी एक नई प्रगटाई। ताकी जात करन सब आवै नर-नारी इत हरख बढ़ाई। सनि अति अचरज सों जसुदा तब देवी के दरसन को धाई । 'हरीचंद' मालिन सों ले के फूल बतासा पूजत जाई।६ हरिहु मातु ढिग आइ गए । कहत सुनत चरचा देवी की सब मिलि भीतर भवन भए । दरसन करि देबी को पूज्यो सब मिलि जै-जैकार दए । 'हरीचंद' जसुदा माता तब अस्तुति ठानी भगति लए ।७ चिरजीओ मेरो कुंवर कन्हैया । इन नैनन हौं नित नित देखों राम कृष्ण दोउ भैया । अटल सोहाग लहो राधा मेरी दुलहिन ललित ललैया । 'हरीचंद' देवी सों मांगत आँचर छोरि जसोदा मैया । जब राधा को नाम लियो । तव मूरत कछु मन मुसुकानी पै कछु भेद न प्रगट कियो । पूजा परसाद सखिन तब जसुदा मोहन दुहुँन दियो। 'हरीचंद' घर गई जसोदा कहि जुग-जुग मेरो लाल जियो । मोहन जिय संदेह यह आयो । जब राधा को नाम लियो तब बाम्हन को गन क्यों मुसकायो । मूरतिहू कछू जिय मुसकानी या मैं है कछु भेद सही। प्यारी-स्वेद-सुगंधहु या परसादी माला बीच लही । पूछिन सकत संकोचन सब सों अति आतुर चित लाल भए । 'हरीचंद' ब्रजचंद साँवरे मन में महा संदेह लए ।१० तब मोहन यह बुद्धि निकासी । जो यह राधा तौ नहिं छिपिहै अंत प्रीति हवै है परकासी । यह जिय सोचि हाथ बीरा ले देवी के अधरान लगायो। नख सों अधर छुयो ताही छिन देवी तन पुलकित हवै आयो । सखियन कयौ छुओ मत देविहि पहिने बसनन तुम सुखदाई। 'हरीचंद' हँसि मौन भए तब कयौ भेद की गति मैं पाई ।११ हाथ जोरि हरि अस्तुति ठानी । जय जय देवी बृदाबन की जै जै गोपिन की सुखदानी । तुम तो देवी अहौ बोलती आबु मौन गति नई लखानी । जो अपराध भयो कछु हमसो ता ताको छमिए महरानी । रूप-उपासी बिना मोल को दास हमैं लीजै जिय जानी । छोटे प्रबंध तथा मुक्तक रचनायें १९५