पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२३८

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मंगल तिनकी मिलनि कहनि बोलनि सुखदानी । ग्रंथ रचत एकाग्र चित्त करि बाँचि सुनावत । मंगल अनुराग सुनयन जल कबहुँ बैठि एकात बिरह अनुभव प्रगटावत । हंसनि नचनि गावनि रमनि । सेवा करि पीतम की कबौं सिखवत बिधि सेवन प्रगट। 'हरिचंद' जगत सिर पाँव धरि कबहूँ सिच्छत जन आपुने मंगल लीला मैं गमनि ।१२ बिविध वाक्य-रचना उघट ।१८ मोर कुटी मँह बैठि खिलावत कबहुँ लाल कहें । खेलत धरि त्रैरूप बाल-तन बनि मोहन तहं । मंगल गीता और भागवत सों मथि काही। मंगल-मूरति जुगल-चरित विरुदावलि बाढ़ी । हरे कुज बन छए बितानन तनी लता सब । द्वादस द्वादस अर्ध पदी जो प्रातहि गावै । झुके मोर चहुँ ओर सुनन को तहं किंकिन-रब । तिन मध्य खिलौना कर लिए चुचकारत बालकन जब। मंगल बादै सदा अमंगल निकट न आवै । किलकाइ चलहिं आनंद भरि मंगल चंद्रावलिनाथ की केलि-कथा मंगल-मई। निरखत नैन सिरात तव ।१९ मंगल बानी 'हरिचंद' सबही को मंगल मई ।१३ बन उपवन एकांत कुंज प्रति तरु तरु के तर । सुमिरौं बल्लम रूप महा मंगल फल पावन । तीर तीर प्रति कुल कूल कुंडन मैं सर सर । गौर गुप्त बपु प्रगट श्याम लोचन मन-भावन । गुफा दरी गिरि घाट सिखर गौवन की गोहर । दृग बिसाल आजानु-बाहु पदमासन सोहै। गल तुलसी की माल देखि सबको मन मोहै । गोकुल ब्रज के गाँव गाँव ब्रज-बासिन घर घर । हरि जहँ जहँ जो लीला करी तहँ सिर तिलक बाहु पर छाप बर केस बँध्यौ सिर राजई। तह सोइ अनुभव करत । त्रय ताप जनन को दूर सों देखत ही दुरि भाजई ।१४ ब्रज-बासिन गौवन ब्रज-पसुन जुगल-केलि रस-मत्त हँसत लखि ज्ञान खलन कहँ । संग ताहि बिधि अनुसरत ।२० दैविन पै अति करुन रौद्र मायाबादिन पहँ । सेवा मैं हरि सों कवहूँ रस भरि बतरावत । बादिन पैं उत्साह भयद अनुसरन कहँ पग पग । दीन जीव पैं घृणित अचंभित देखि बिमुख जग । कबहुँ सुतन सों हरि-सेवा की रीति बतावत । ब्रह्मवाद को कबहु बहुत बिधि थापन करहीं । अति शांत भक्तवत्सल परम सख्य बिबुध-जन सों करत । लोक सिखावन हेतु कबहुँ संध्या अनुसरहीं । विश्राम करत कबहूँ जवै अमित होइ तब भक्त-जन । जग-हास्य सिखावत मुख मधुर आनंदमय रस बपु घरत ।१५ गुन गावत चरन पलोटहीं करहिं कोउ मुरछल बिजन ।२१ हृदय आरसी माहि जुगल परतच्छ लखावत । राख्यो श्रुति की मेड़ शास्त्र करि सत्य दिखायो । जग-उधार मैं रसिक माल कर शोभा पावत । द्विज-कुल धन धन कियो भूमि को मान बढ़ायो । चरन-कमल-तल सकल बिमल तीरथ दरसावत । दैवी-जन अबलंब दियो पंडित परितोषे । मुख सों श्री भागवत गूढ आसय नित गावत । घेरे चहुँ दिसि सब संतजन जे हरि-रस भीजे रहत । वैष्णव-मारग उदय कियो बिरही-जन पोषे । कर ज्ञान-मुद्रिका धारिकै तिनसों कृष्ण-कथा कहत।१६/ ब्रज-भूमि लता तरू गिरि नदी पसु पंछी सों नेह करि । ब्रज-बासी जन अरु गउन सों कबहुँ अचल बैरहत मौन कछु मुख नहिं माखत । कबहुँ बाद कर लाइ खंडि माया-मत नाखत । जुगल-केलि करि याद हंसत कबहूँ गुन गावत । केसादिक सों बाम श्याम दक्षिन छबि पावत । कंपादिक संचारी भाव जनावत । शिव बिराग सों प्रगट देवरिषि से गुन गावत । तन रोम-पाति उघटित सदा गद्गद हरि गुन मुख कहत। ग्रंथ-रचन सों ब्यास मुक्त सुक रूप प्रकासत । लखि दीन-दसा जग जीय की वैष्णव-पथ प्रगटाइ विष्णु स्वामी प्रभु भासत । उमगि निरंतर दृग बहत ।१७ मुख शास्त्र कहन बिरहागि को प्रगटावन सों अगिनं सम। तीरथ पावन करन कबहुँ भुव पावन डोलत । मनु सकल तत्व पिंडी बन्यो मी भागवत -सुधा-समुद्र मथि कबहूँ बोलन । सोभित श्री बल्लभ परम ।२३, प्रम निबाह्यौ रूप धरि ।२२ परतछ भारतेन्दु समग्र १९८