पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनहुँ देवगन तत्व काढ़ि यह रूप बनायो । यह मनहुँ प्रेम की पूतरी इक रस साँचे में ढरी । श्री भागवत-सुधा-समुद्र मथि के प्रगटायो । प्रेमीजन-नयनन सुख महा प्रगटावत निज बपु धरी ।२४, पिंडभूत बैराग रूप निज प्रगट दिखावत । तिलंग बंस द्विजराज उदित पावन बसुधा-तल । ज्ञान मनहुँ घन होइ सिमिटि के सोभा पावत । भारद्वाज सुगोत्र यजुर शाखा तैतिरि वर । ब्यास मुक्त प्रकासत । यज्ञ नरायन-कुलमनि लक्ष्मन भट्ट-तनूभव । वैष्णव-पथ प्रगटाइ बिष्णु स्वामी प्रभु भाषत । इल्लमगारू-गर्भरत्न सम श्री लक्ष्मी धव । मुख शास्त्र कहन बिरहागि कों प्रगटावन सों अगिन सम। श्री गोपिनाथ-बिठ्ठल-पिता भाष्यादिक बहु ग्रंथ कर । मनु सकल तत्व पिडी बन्यौ श्री विष्णुस्वामि-पथ-उदरन जै जै बल्लम रूप वर ।२५ सोभित श्री बल्लभ परम ।२३ इमि श्री बल्लभ रूप प्रात जो सुमिरन करई । मनहुँ देवगन तत्व काढ़ि यह रूप बनायो । लहै प्रेम-रस-दान जुगल पन में अनुसरई । श्री भागवत-सुधा-समुद्र मथि के प्रगटायो । द्वादस द्वादस अर्घ-पदी प्रातहि उठि गावै । पिंडभूत बैराग रूप निज प्रगट दिखावत । दुबिध बासना छाड़ेि केलि-रस को फल पावै । ज्ञान मनहुँ घन होइ सिमिटि के सोभा पावत । यह प्राननाथ की प्रथम ही सुमिरन सब मंगल-मई । बानी पुनीत 'हरिचंद' की प्रेमिन को मंगल मई ।२६ S Jual दैन्य-प्रलाप भक्तिसूत्र वैजयंती के अंत में यह कविता दी गई थी, जो सन् १८७३ में प्रकाशित हुई 1 दैन्य प्रलाप पूरबी जग में काको कीजै तोस । तन-पौरुष सब थाका मन नहिं थाका हो माघो । जासों तनकहु बिरति कीजिए सोई धारत रोस । केस पके तन पक्यौ रोग सो मनुआँ तबहु न पाका । इंद्रिय सब अपुनी दिसि खीचत चाहि चाहि निज मोग। अर्जुन-भीम-सरिस चाहत यह करन बिषय-रन साका। मन अलभ्य बस्तुनहू भोगत मानत तनिक न सोग । बीती रैन तबो मतवारा घोर नींद मैं छाका । कहति प्रतिष्ठा हमहिं बढ़ाओ चहति कामना काम । हारि गयो पै भूठहि गाड़े अबहूँ विजय-पताका । ईर्षा कहति तुमहिं इक जीअहु करि औरन बे-काम । 'हरीचंद' तुम बिनु को रोके ऐसे ठय को नाका ।२ जागत सपन काय वाचा सों मन सों भोगत धाय । नर-तन सब औगुन की खान । घिसि गई इंद्री प्रान सिथिल मे तौहू नाहिं अवाय । सहज कुटिल-गति जीवहु तामै यामै श्रुति परमान । जौन मिलत के तन बल नहिं तौ दूरहि सों ललचाय । स्वारथ-पन आग्रह मलीनता लोम काम अरु क्रोध । जिमि सतृष्ण हवैलखत मिठाइन स्वान लार टपटाय। कामादिक सब नित्य धरम हैं तन मन के निरबोध । सब सों थकि कै करत स्वर्ग के अमृतादिक मैं चाह । तापे सहधरमिन सों पूरेयौ भो संसार सहाय । धिक पिक घिक 'हरिचंद' सतत अंध आसरे चल्यौ अंध के कहो कहा लौ जाय । धिक यह जग काम अथाह ।१ 'करि करुना करुनानिधि केसव जो पै पकरो हाथ । छोटे प्रबंध तथा मुक्तक रचनायें १९९