पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२४

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देख्यों एक बारहु न मैन भरि तोहि यातें जौन-जौन ज्यैहों ताहां पछतायेगी। बिना प्रान प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय मरेहू पै आंखे ये खुली ही रह जायेंगी। रीतिबद्ध काव्य रचना को छोड़कर मध्ययुगीन सभी काव्य प्रवृतियों को अपनी रचना प्रक्रिया में समेटते भी भारतेन्दु की उन्मुक्त प्रकृति उस कविता संसार से भाग निकलना चाहती थी, क्योंकि ऐसी काव्य परम्परा की पप्पड़ छोड़ती दीवारें उनकी काव्य प्रतिभा को लोक साहित्य और लोक गीत के खुले वातावरण में जाने से रोकने में सर्वधा असमर्थ थीं । दूसरी ओर उनकी मानसिकता जन जीवन से अलग थलग पड़े साहित्य को जनता से जोड़ना चाहती थी । वह जंगल में उगे कैक्टस को लाकर साहित्य के ड्राइंग रूम को सजाना चाहते थे । ज्यादा सही यह कहना होगा कि साहित्य के ड्राइंग रुम को वे विलास भवन से निकालकर गांव गिराव की उस खुरदुरी धरती पर लाना चाहते थे जहा लोक रस की धारा स्वतः प्रवाहित होती है । इसके लिए उन्होंने मई १८७९ ई. की कविवचन सुधा में एक लम्बी विज्ञप्ति प्रकाशित करायी थी । शिवनन्दन सहाय कृत भारतेन्दु के जीवन चरित्र से यहां उसका कुछ अंश उदघृत किया जा रहा है । "भारतवर्ष की उन्नति के जो अनेक उपाय महात्मागण आजकल सोच रहे हैं, उनमें एक और उपाय होने की आवश्यकता है । इस विषय के बड़े-बड़े लेख और काव्य प्रकाश होते हैं, किन्तु वे जन साधारण के दृष्टिगोचर नहीं होते । इसके हेतु मैंने यह सोचा है कि जातीय संगीत की छोटी-छोटी पुस्तकें बने और वे सारे देश गांव गांव में साधारण लोगों में फैलेगी उसी का प्रचार सार्वदेशिक होगा और यह भी विदित है कि जितना शीघ्र ग्राम गीत फैलते हैं और जितना काव्य को संगीत द्वारा सुनकर चित्त पर प्रभाव होता है, उतना साधारण शिक्षा से नहीं होता । इससे साधारण लोगों के चित्त पर भी इन बातों का अंकुर जमाने को इस प्रकार से जो संगीत फैलाया जाय तो बहुत कुछ संस्कार बदल जाने की आशा है । इसी हेतु मेरी इच्छा है कि मैं ऐसे गीतों का संग्रह करूं और उसको छोटी-छोटी पुस्तक में मुद्रित करूं।" इस विज्ञप्ति से साफ जाहिर है कि अच्छा से अच्छा साहित्य जो जन साधारण में दृष्टिगोचर नहीं होता, देश के लिए सम्प्रति बेकार है । आम आदमी को छूने वाला साहित्य लिखा जाना चाहिए। लिखना ही पर्याप्त नहीं है, उसका प्रचार भी होना चाहिए। भारतेन्दू सुदृढ़ और प्रौढ़ साहित्यिक परम्परा से जुड़े व्यक्ति थे । संगीत का अभिजात्य शास्त्रीय स्तर उनकी रुचि में रचा बसा था । फिर भी उन्होंने लोक साहित्य की शक्ति और उसकी अनिवार्यता को पहचाना। - उन्होंने 'पक्के गाने" सुनने वालों को सलाह दी कि वे लोक धुनों में भी रस लें । उनमें लोक साहित्य को जन जागरण का माध्यम बनाने की व्यग्रता दिखायी दी । उन्होंने इस साहित्य के प्रचार एवं प्रसार के सम्बन्ध में लिखा है "जिन लोगों का ग्रामीणों में सम्बन्ध है, वे गांव में ऐसी पुस्तक भेज दें । जहां कहीं ऐसे गीत सुने उसका अभिनन्दन करें । इस हेतु ऐसे गीत बहुत छोटे- छोटे छन्दों में और साधारण भाषा में बने. वरच गवारी भाषा में और स्त्रियों की बाइस