पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२४१

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उरहना 'हरिचंद्र मैगजीन के १५ अक्तू. सन् १८७३ के अंक में प्रकाशित । इसके दो तीन पद राग-संग्रह तथा प्रम-प्रलाप में भी आ गये हैं उरहना प्राननाथ तुम बिनु को और मान राखै । पिया न पूछत तऊ सुहागिनि बनि सेंदुर दै माथ के । जिअ सों वा मुख सों को प्यारी कहि भाखै । दीन दया लखि हँसौ न कोऊ सुनौ सबैरे साथ के । प्रति छन को नयो नयों अनुभव करवावै । वा घर के सेवक ऐसे ही जीवत स्वासा भाथ के । कौन जो खिझाइ के रोवाइ कै हँसावै । 'हरीचंद' निरलज हवै गावत संशय सागर महान ड्रबत लखि धाई । निरलज हरि-गुन-गाथ के ।। कौन जो अवलंब देहि तुम बिनु ब्रजराई । साहब रावरे ये आवै। सुत पितु भव मोह कौन मेटै चित लेई । जिन्हे देखि जग के करुना सौ नैनन नीर बहावै । मूरख कहवाइ जगत पंडित-गति देई । कोऊ हंसैं बिपति पै कोऊ दसा बिलोकि लजावें। लोक वेद झगरन के जाल में बंधायो । कोऊ घृणा करै कोउ मूरख कहि के हाथ बतावै । कौने तुम बिनु करि निज अनुभव सुरझायो । देखि लेहु इक बार इनहि तु नैना निरखि सिरावें। भव अथाह बहे जात लखि कै चित माहीं। 'हरीचंद' आखिर तो तुमरे कोऊ भांति कहावें। कौने करि मेड़ धरी निज बिसाल बाहीं । बीरता याही मैं अटकी । झूठे जग कहत मर्यो चित संदेह आयो । 'हरीचंद' कौन प्रगटि साँचो कहवायो ।१ हम अबलन प जोर दिखावत य है बान टटकी । अघी को पीठ ही चहिए। यही हित नित कसे रहत कटि कसनि पीत पटुकी । 'हरीचंद' बलिहार सूरता पिय नागर-नट की ७ पाप बसत तुम पीठ मांहि यह बेदनहु कहिए । बुद्ध होय निन्द्यो वेदहि तब सो मुख नहि लहिए। लाल क्यों चतुर सुजान कहावत । 'हरीचंद' पिय मुख न दिखाओ रूठे ही रहिए ।२ कहर अनीति निरलज से डोलत क्यौं नहिं बदन छिपावत । अहो मोहि मोहन बहुत खिलायो । अब लौ हाय कियो नाही' बध बातन ही बिलमायो। चतुराई सब धूर मिलाई तौह गरब बढ़ावत । 'हरीचंद' अबलन को बधि कै कैसे अकरि दिखावत ।८ जानि परी अपराध हमारो तोहिं सुमिरत हवै आयो । ताही सों रूठि रूठि के अब बेनी हमरे बाँट परी। ताहि सों रूठि रूठि कै अब लौ प्रान न पीय नसायो । धन धन भाग लाइहैं नैनन रहिहै हृदय धरी । हमहूं जानत मो अघ आगे लघु सम सब दुख आयो । लखि मुख चूमि अघर भुज दै भुज करौ सबै मिलि राज । हरीचंद' पै बिरह तुम्हारो जात न तनिक सहायो ।३ | हमरे तो बेनी को दरसन सिद्ध करै सब काज । अहो हरि निरदय चरित तुम्हारे । क्यौं कविगन नागिन की उपमा मेरी प्यारिहिं देत । तनिक न द्रवत हृदय कुलिसोपम लखि निज भक्त दुखारे। हमकों तो इक यहै जिआवत राखत हमसों हेत । दयानिधान कृपानिधि करुना-सागर दीन पियारे । क्यौं नहिं सुख मानें थोड़े ही जो बिधि बिरच्यौ भाग । यह सब नाम झूठही बेदन बकि बकि बृथा पुकारे । राज देखि दूजेन को क्यों हम करै अकारथ लाग । गोपीनाथ कहाइ न लाजत निरलज खरे सुधारे । वेनी हमरी हमरो जीवन बेनी ही के हाथ । 'हरीचंद' तुम्हरे कहवायें मरियत लाजन मारे ।४ जब तुम मुख फेरत तब बेनी रहत हमारे साथ । सुनौ हम चाकर दीनानाथ के । भलहिं रूप-सागर तुम्हरो सों खारो मेरे जान । कृपा-निधान भक्त्त-वत्सल के पोषित पालित हाथ के । हरीचंद मोहि कल्प-तरोवर कामद बेनी-न्हान । छोटे प्रबंध तथा मुक्तक रचनायें २०१