पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तन्मय-लीला जनवरी १८७४ की हरिश्चन्द्र मैगजीन में प्रकाशित तन्मय-लीला राधे-श्याम-प्रम-रस भीनी । नहिं मानत कछु गुरुजन को भय लोक-लाज तजि दीनो । मगन रहत हरि-रूप-ध्यान में जल-पथ की गति लीनी । 'हरीचंद' बलि प्रेम सराहत तन की सुधि नहिं कीनी ।१ राधे मई आपु घनश्याम । आपुन की गोविंद कहत है छोडि राधिका नास | वैसेइ मुकि मुकि के कुंजन मैं कबहुँक बेनु बबावे । कबहुँ आपुनो नाम लेइ कै राधा राधा गावै । कबहुँ मौन गहि रहत ध्यान करि मंदिरहत दोउ नैन । 'हरीचंद' मोहन बिनु व्याकुल नेकु नहीं चित चैन ।२ प्यारी अपनो ध्यान बिसार्यो । श्रीराधे श्रीराधे कहि के कुंजन जाइ पुकार्यो । कबहुँ कहत बृषभानु-नंदिनी मान न इतनो कीजै । प्रान-पियारी सरन आपुके कयौ मानि मेरो लीजै । पनघट चलि रोको ब्रजनारिन दधि को दान चुकायो । कबहुँ कहत मेरो सुरंग खिलौना राधे लियो चुराई । कबहुँ कहत मैया यह तोको छोटी दुलहिन भाई । कबहुँ कहत हम सात दिवस गोबरधन कर 4 धार्यो। अघ बक घेनुक सकट पूतना इनको हमहिं संहार्यो । कबहुँ कहत प्यारी जमुना-तट कुंजन करौ बिहार । 'हरीचंद' भइ श्याम-रूप सो तन की दसा बिसार १३ सखी सब राधा के गृह आई। प्रेम मगन तिन ताकहें देखी जाते अति पछिताई । दोऊ नैन मूदि के बैठी नेकहु नाहिन वोले । राधे राधे कहि के हारी तबहुँ न घूघट खोले । बीजन करि बहु भाँति जगावो लै लै वाकौ नाम । सुनत नहीं बानी कछु इनकी उर बैठे घन-श्याम । जब गोपाल को नाम लियो तब बोलि उठी अकुलाई । 'हरीचंद' सखियन आगे लखि कछुक गई सकुचाई ।४ सखिन सों पूछत कित है प्यारी । ललिता तू मोहिं आनि मिलावें हो तेरी बलिहारी। देहों आपुनो पीत पिछौरा बसी रतन-जराई । 'हरीचंद' इमि कहत राधिका ध्यान माह फिर आई।५ दसा लखि चकित मई ब्रज-नारी । राधे को कह भयो सखी री अपनी दसा बिसारी । राधा नाम लिये नहिं बोलत कृष्ण नाम तें बोले । वैसे ही सब भाव जतावति हैसि हसि चूंघट खोले । धन धन प्रेम धन्य श्रीराधा धन श्री नंद-कुमार । 'हरीचंद' हरि के मिलिबे को करो कछू उपचार i६ तहाँ तब आइ गए घन-श्याम । मोर-मुकुट कटि पीत पिछौरी गरे गुंज की दाम । दसा देखि प्यारी राधा की अति आनंद जिय मान्यो । सखियनहूँ ये प्रेम अवस्था को सब हाल बखान्यो । प्रम-मगन बोले नंद-नंदन सुनि प्यारे मैं आई। जो तुम राधा नाम टेरिकै बेनु बजाइ बोलाई । सुनतहि नैन खोलिकै देख्यो स्याम मनोहर ठाढ़े । कछुक प्रम कछु सकुच मानिकै प्रम-बारि दृग बाढ़े। दौरि कंठ मोहन लपटाई बहुत बड़ाई कीनी ! कर्यो बोध प्यारी राधा को हृदय लाइ पुनि लीनी । कर सो कर दे चले कुंज दोउ सखियन अति सुख पायो। रसना करत पवित्र आपुनी 'हरीचंद' जस गायो ।७ भारतेन्दु समग्र २०२