पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२४३

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दान-लीला फरवरी सन् १८७४ ई. की हरिश्चन्द्र मैगजीन' में प्रकाशित दान-लीला पिअ प्यारे चतुर सुजान मोहन जान दै। प्रेमिन के जीवन-प्रान मोहन जान प्यारे गिरिधारियाँ एकांत मैं राखी हैं सब घेर । ऐसी तुम्हें न चाहिए हो छांडी होत अबे। कैसे छाडै ग्वालिनी हो लागत मेरो दान । ताहि दिये बिन जाति हो तुम नागरि चतुर सुजान । जो चाही सो लाडिले हँसि हँसि गो-रस लेहु । सखन संग भोजन करौ औ मोहिं जान तुम देहु । थोरे ही निपटी भले दै गौ-रस को दान । परम चतुर तुम नागरी लियो हम को मूरख जान । तुमकों मूरख को कहै हो यह का कहत मुरारि । सकल गुनन की खान हो जानें ग्वारि गंवार । जद्यपि सकल गुन-खानि हैं हो नागर नाम कहात । पै तुम भौंह-मरोर सों मेरे भूलि सकल गुन जात । तुम तो कदु भूले नहीं ही स्वारथ ही के मीत । भूली सब गोपिका हो करिकै तुमसों प्रेम-प्रीतत । क्यौं भूलीं सब गोपिका हो करिकै हमसों प्रीति । यह हमकों समुझाइये क्यौं भाखत उलटी रीति । हम उलटी नहिं भाखहीं हो समुझो तुम चित चाह । हम दीनन के प्रेम की हो कहा तुम्हें परवाह । ऐसी बात न बोलिए झूठेहिं दोस लगाय । बंधे तुम्हार प्रेम में हम सों कैसे कृटि जाय । प्रेम बंधे जौ लाडिले हो तो यह कैसो हेत । हम ब्याकुल तुम बिन रहैं नहिं भूलेह सुधि लेत । गुरु-जन की नित त्रास सों हम मिलत तुमहिं नहीं धाइ। जिय सो बिलग न मानियो हम मधुकर तुव बन-राइ । जा दिन बंसी बजाइकै हो लीनी हमैं बुलाय । ता दिन गुरुजन-भीति हो कित दीनी सबै बहाय । गुप्त प्रीति आछी लगै हो प्रगट भए रस जाय । चामैं या ब्रज को कोऊ नहिं देइ कलंक लगाय । प्रगट भई तिहुँ लोक मैं हौ गोपी-मोहन-प्रीति । सब जग मैं कुलटा भई तापै तुम को नाहीं प्रतीति । गुरु-जन घर मैं खीझहीं हो देत अनेकन गारि । बाहर के देखत कहें यह चली कलकिन नारि । करन देह जग को हँसी हो चप ह्वै हैं थकि जाह । बिन सो सब जग छडि के हो मिलें निसान बजाइ । प्यारे तुमरे ही लिए सब जग को बेवहार । तुम विरुद्ध सब छाँडिए हो मात पिता परिवार । पै कठिनाई है यह अस होत यहै जिय साल । तुम तो कछु मानौ नहीं मेरे बे-परवाही लाल । सब सों तो पहिले करो हो हँसि हँसि कै तुम चाह । पै पालन सीखे नहीं तुम प्रेमी प्रम-निबाह । तुम्हें कहा कोउ की परी भलेइ देइ कोउ प्रान । तापै उलटो आइके हो माँगत हम सों दान । लोक-लाज कुल धर्महू तन मन धन बुधि प्रान । सब तो तुम को दे चुकीं अब मांगत काको दान । बहुत भई पिय लाडिले अब क्यौह्र सहि नहिं जाय । जानि दासिका आपुनी गहि लीजै भुजा बाय । परम दीनता सों भरे सुनि प्यारी के बैन । पुलकित अंग गद्गद भयो हो उमगि चलै दोउ नैन । धाइ चूमि मुख भुजन सों भरि लीनी कंठ लगाय । 'हरीचंद' पावन भयो यह अनुपम लील गाय । रानी छम-लीला १५ फरवरी सन् १८७४ ई. की'हरिश्चन्द्र मैगजीन में प्रकाशित रानी छम-लीला नौमि राधिका-पद जुगल तिन पद को बल पाइ । | उलटि छदम-लीला कहत 'हरीचंद' कछु गाइ । Waen करे कान्ह जिमि छदम सुहाए। 16 छोटे प्रबध तथा मुक्तक रचनायें २०३