पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२४७

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1८ दिन दुलह सुंदर साँवर भे । कांधे बीन बजावति हो 'हरिचंद' महान अनंद बढ़यौ क्यौं कान्ह कान्ह गोहरावति हो ।७ दोउ मोद भरे जब भाँवर भे। ती को भेख छाँड़ि के जो तुम तिनसों जग में कछु नाहिं बनी मोहन बनिकै आवति हो 1 जो न ऐसी बनी पै निछावर भे ।२ | मोर मुकुट सिर पीत पिछौरी आँचर खोले लट छिटकाए तैसोइ भाव दिखावति हौ। 1 तन की सुधि नहि ल्यावति हो । तो 'हरिचंद' कसर इतनी क्यों धूर-धूसरित अंग संक कछु बसी और बजावति हो । गुरु-जन का नहिं पावति हो । राधे राधे रट लाओ क्यों 'हरिचंद' इत सों उत व्याकुल कान्ह कान्ह गोहरावति हो कबहुँ हँसत कहुँ गावति हो । मूड चढ़ी ब्रज चार चवाइन कहा भयो है पागल सी क्यों इनपैं क्यों हँसबावति हो । धीर धरौ बलि गई प्रम क्यौं कान्ह कान्ह गोहरावति हो ।३ पहिले तो बिन ही समझे तुम अपुनो प्रगट लखावति हो नाहक रोस बढ़ावति हो । 'हरिवंद' या बड़े गोप के फिर अपनी करनी पैं आपुहि बसहिं क्यों लजवावति हो। रोइ रोइ बिलखावति हो । सखिन सामुने व्याकुल खै क्यों मान समय 'हरिचंद' झिझकि पिय कान्ह कान्ह गोहरावति हो । अब काहें पछतावति हो । कौन कहत हरि नाहि कुंज में तब तो मुख उनसों फेर्यो अब सूनो झूठ बजावति हो। कान्ह कान्ह गोहरावति हो 1 कौन गयो मधुबन यह हरि को नाहक दोस लगावति हो । बार बार क्यों जानि-बूझि बनि हरिचंद' बियोगिनि सी तुम याही गलियन आवति हो । सब बादहि बिरह बढ़ावति हो । रोकि रोकि मग भई बावरी जित देखो तित प्राननाथ क्यों इतसों उत क्यों धावति हो। कान्हा कान्हा गोहरावति हो ।१० त्यौं हरिचंद भली रुजगारिन श्री बन नित्य बिहार थली इत नाहक तक गिरावति हो। जोगिन बनि क्यों आवति हो । दही दही सब करौ अरे क्यौं बिन बान ही प्रेम आपुनो कान्ह कान्ह गोहरावति हो ।५ कुंज-भवन नहीं गहबर बन यह माला फेरि दिखावति हो हाँ क्यों सेज सजावति हो । नाम लेइ 'हरिचंद' निकर को मोहन देखि जानि आए क्यों नाहक प्रीति लजावति हो । आदर को उठि धावति हौ। राधे राधे कहौ सबै क्यों देखि तमालन दौरि दौरि कान्ह कान्ह गोहरावति हौ ।११ क्यों अपने कंठ लगावति हो। पिय के कुंज नाहिं कोउ दूजी काहें रोस बढ़ावति हौ । पात म्वरक सुनि के प्यारी बिना बात निरदोसी पिय पैं भौंह खींचि चढ़ावति हो । क्यौं कान्ह कान्ह गोहरावति हो । कहा दिखैही का तुम चोरी पकरी जो ऐंडावति हो । जो तुम जोगिन बनि पी के अपनो ही प्रतिबिम्ब देखि क्यौं हित अंग भभूत रमावति हो । कान्ह कान्ह गोहराषति हो । सेलि डारि गले नैनन में होइ स्वामिनी दतीपन को कैसे चित्त चलावति हो। छकि के रंग जमावति हो । हाथ न ऐहै ताहि गहत क्यों घर के बार मुंदावति हो । त्यो 'हरिचंद' जोगिया लेके प्रम-पगी 'हरिचंद बादही रचि रचि सेज बिछावति हो। तो फिर अलख अलख बोलो अपनो ही प्रतिबिम्ब देखि क्यों छोटे प्रबंध तथा मुक्तक रचनायें २०७