पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२५

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भाषा में विशेष हों । कजली, ठुमरी, खेमका, कहरवा, अदा, चैती, होली, सांझी, लम्बे लावनी, जाँते के गीत, बिरहा, चनैनी, गजल इत्यादि ग्राम गीतों में इनका प्रचार हो और सब देश की भाषाओं में इसी अनुसार हो-अर्थात पंजाब में पंजाबी, बुन्देलखण्ड में बुन्देल खंडी, बिहार में बिहारी-ऐसे देशों में जिस भाषा का साधारण प्रचार हो उसी भाषा में ये गीत बनें।" इस प्रकार जन साहित्य के लेखन के लिए भारतेन्दु अपने युग के लेखकों को ही नहीं प्रोत्साहित करते, वरन् आगे आने वाली पीढ़ी के लिए भी एक नया आयाम खोलते हैं । पाठकों की तलाश के लिए भी वे व्यग्न मालूम होते हैं । वे लोक गायकों की बोली ही बनाने के लिए व्याकुल नहीं दिखायी देते । वरन् श्रोताओं की तैयारी की भी चेष्टा करते हैं। उन्हें खुद ऐसा भान हो गया था कि जो हमारी साहित्यिक परम्परा है, वह दमतोड़ रही है। वह आम आदमी के लिए निर्रथक हो जा रही है । इसलिए साहित्य को जनता में जाना चाहिए । क्या ऐसा हो सकेगा ? या जनता के बीच लहरा रही जन साहित्य की धारा में से नयी ऊर्जा के साथ नयी साहित्यक परम्परा का जन्म होना चाहिए । एक सूखता हुआ वृक्ष किसी नये बृक्ष को जन्म नहीं दे सकता । नये स्वस्थ वृक्ष के लिए आवश्यक है कि उसका शोधित बीज धरती में डाला जाये । धरती में ही उस बीज को बृक्ष बनाने की ताकत होती है । इस सत्य को भारतेन्दु ने अच्छी तरह पहचाना था । एक मरी हुई साहित्यिक परम्परा के नये बीज को शोधित भी किया उसे धरती में बोकर उगाया भी उसके अनुकूल नयी भाषा भी दी । परिणामत: भारतेन्दु और भारतेन्दु मंडल के सभी लोगों ने लोक साहित्य की रचना आरम्भ की । जीवन से अधिक जुड़े होने के कारण लोक साहित्य में लोक समस्याओं की धारदार अभिव्यक्ति स्वाभाविक है। यही कारण है कि उस युग की सभी समस्याएं लोकगीतों का विषय बनीं । सामाजिक अन्धरुढ़ियों से लेकर राजनीतिक कुस्थितियों तक पर इनके माध्यम से निर्मम प्रहार किये गये । 'हिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित यह होली काफी मशहूर है: डफ बाज्यो भारत भिखारी को। केशर रंग गुलाल भूलि गयो, कोऊ पूछत नहिं पिचकारी को । बिन धन अन्न लोग सब व्याकुल । भई कठिन विपत नर नारी को । चहुं दिसि काल परसो भारत में भय उपन्यो महामारी को । एक होली स्वयं भारतेन्दु की देखिए । एक ओर साम्राज्यवाद का वैभव और विलास में डूबा रुप है, तो दूसरी ओर निरीह जनता की बरबादी का चित्र है। भारत में मची है होरी । इक ओर भाग-अभाग एक दिसि, होय रही झकझोरी । अपनी अपनी जय सब चाहत, होड़ परी दुहं ओरी । दुन्द सखि बहुत बढ़ोरी ।। धूर उड़त सोई अबिर उड़ाबत, सबको नयन मरोरी । दीन दसा अंसुवन पिचकारिन सब खिलार भिजयो री ।। भीजि रहे भूमि लटोरी। तेहस