पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२५०

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. प्रबोधिनी अगस्त १८७४ की हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' में प्रकाशित जागे मंगल-रूप सकल ब्रज-जन-रखवारे । ससि सूर पवन घन इंदिरा निज निज सेवा में लगत। जागो नन्दानन्द-करन जसुदा के बारे। मृतु काल यथा उपचार मैं खरे भरे भय सगबगत १६ जागे बलदेवानुज रोहिनि मात-दुलारे । बंदीजन सब द्वार खरे मधुरे गुन गावत । जागो श्री राधा के प्रानन ते प्यारे । चंग मृदंग सितार बीन मिलि मंद बजावत । जागो कीरति-लोचन-सुखद भाना-मान-वर्दित-करन । द्विज गन प नंदराय अनेक असीम पढ़ावत । जागो गोपी-गो-गोप-प्रिय भक्त-सुखद असरन-सरन।१ निज निज सेवा मैं सब सेवक उठि उठि धावत । होन चहत अब प्रात चक्रबाकिनि सुख पायो । पिकदान वस्त्र दरपन चवर जलझारी उबटन मलय। उड़े बिहग तजि बास चिरैयन रोर मचायो । सोधो सुगध तंबोल ले खरे दास-दासी-निचय ।७ नव मुकुलित उत्पल पराग ले सीत सुहायो । मथे सद्य नवनीत लिये रोटी घृत-बोरी । मंथर मति अति पावन करत पंडर बन धायो । तनिक सलोने साक द्ध की भरी कटोरी। कलिका उपबन बिकसन लगी भंवर चले संचार करि। खरी जसोदा मात जात बलि बलि तृन तोरी । पूरब पच्छिम दोउ दिसि अरुन तुय मुख निरखन-हेत ललक उर किये किरोरी । तरुन अरुन कृत तेज धरि ।२ रोहिनि आदिक सब पास ही खरी बिलोकत बदन तुव। दीप-जोति भइ मंद पहरुगन लगे जंभावन । उठि मंगलमय दरसाय मुख मंगलमय सब करहु भुवा८ भई संजोगिन दुखी कुमुद मुद मुंदे सुहावन । करत काज नहि नंद बिना तुव मुख अवरखे । कुम्हिलाने कच-कुसुम बियोगिनि लखि सचुपावन । दाऊ बन नहिं जात बदन सुंदर बिनु देखे । भई मरगजी सेज लगे सब भैरव गावन । ग्वालिन दधि नहिं बेंचि सकत लालन बिनु पेखे । तन अभरन-गन सीरे भए काजर दुग बिकसित सजत। गोप न चारत गाय लखे बिनु सुंदर भेखे । अधरन रस लाली साथ मुख पान स्वाद तजनो चहत।३ भइ भीर द्वार भारी खरे सब मुख निरखन आस करि। बलिहार जागिए. देर भइ बन गो-चारन चेत धरि ।९ मथत दही ब्रज-नारि दहत गौचन बज-बासी । उठि उठि के निज काज चलत सब घोष-निवासी । करत रोर तम-चोर भोर चक्रवाक बिगोए । द्विज-गन लावत ध्यान करत सन्ध्यादि उपासी । आलस तजि के उठौ सुरत सुख-सिंधु भिगोए । बनत नारि खडिता क्रोध पिय पेखि प्रकासी । दरसन हित सब अली खरी आरती संजोए । गौ-रम्भन-धुनि सुनि बच्छगन आग्ल माता ढिग चलत। जुगल जागिए बेर भई पिय प्यारी सोए । पशु-बृद सबै बन को गवन करन चले सब उच्छलत।४ मुख-चंद हमें दरसाइ के हरौ बिरह को दुख बिकट । नारद तुबरु षट बिभास ललितादि अलापत । बनिहार उठो दोऊ अबै बीती निसि दिन भो प्रगट ।१० चारहु मुख सों बेद पढ़त बिधि तुव जस थापत । ललिता लीने बीन मधुर सुर सों कछ गावत । इंद्रादिक सुर नमत जुहारत थर थर कांपत । बैठि बिसासा कोमल करन मृदंग बजावत । व्यासादिक रिषि हाथ जोरि तुष अस्तुति जापत । चित्रा रनिरनि वह क्समन की माल बनावत । जय विजय गरुड़ कपि आदि गन खरे खरे मुजरा करत। श्यामा भामा अभरन सारी पाग सजावत । शिव डमरू ले गुन गाइ तुव प्रम-मगन आनंद भरत ।५ पिकदान चंद्रभागा लिए चम्पक-लतिका जल गहत । दुर्गादिक सब खरी कौर नैनन की जोहत । दरपन लै कर में इंद्रलोक गंगादि आर्चवन हेत घट लाई सोहत । लेखा बलि बलि जागौ कहत ।११ तीरथ सब तुव चरन परस-हित ठाढ़े मोहत । कबरी सबरी थि फेर सों मांग भराओ । तुलसी लीने कुसुम अनेकन माला पोहत । कसिके रस सों पाग पेंच सिरपेंच बंधाओ । भारतेन्दु समग्र २१०