पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२५६

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श्री राजकुमार-शुभागमन- वर्णन* सन् १८७६ में बाला बोधिनी में प्रकाशित 1८ स्वागत स्वागत धन्य तुम मावी राजधिराज । जिमि रघुबर आए अबध जिमि रजनी लहि चंद । भई सनाथा भूमि यह परसि चरन तुव आज ।१ तिमि आगमन कुमार के कासी लस्यौ अनंद ।१८ "राजकुंअर आओ इते दरसाओ मुख चंद । मधुबन तजि फिर आइ हरि ब्रज निव से मनु आज । बरसाओ हम पर सुधा बाढ्यौ परम अनंद ।२ | ऐसो अनुपम सुख लह्यो तुम कह निरखि समाज ।१९ नैन बिछाए आपु हित आवहु या मग होय । कमल पाँवड़े ये किए अति कोमल पग जोय" ।३ षभिः कुलकम साँचहु भारत में बढयो अचरज सहित अनंद । जदपि न भोजन व्यास नहिं बालमीकि नहिं राम । निरखत पच्छिम सों उदित आज अपूरब चंद ।४ शाक्यसिंह 'हरिचंद' बलि करन जुधिष्ठिर श्याम।२० दुष्ट नृपति बल दल दली दीना भारत भूमि । जदपि न बिक्रम अकबरहु कालिदासह नाहि । लहिहै आजु अनंद अति तुव पद-पंकज चूमि ।५ जदपि न सो विद्यादि गुन भारतवासी मांहि ।२१ बिकसित कीरति-कैरवी रिपु बिरही अति छीन । प्रतिष्ठान साकेत पुनि दिल्ली मगध कनौज । उडुगन-सम-नृप और सब लखियत तेज-बिहीन । जदपि अबै उजरी परी नगर सबै बिनु मौज ।२२ स्रवत सुधा-सम बचन-मधु पोखत औषधिराज । जबपि खंडहर सी भरी भारत भुव अति दीन । त्रासत चोर कुमित्र खल नंदत प्रजा-समाज ।७ खोइ रत्न संतान सब कृस तन दीन मलीन ।२३ चित-चकोर हरखित भए सेवक-कुमुद अनंद । तदपि तुमहिं लखि कै तुरत आनंदित सब गात । मिट्यौ दीनता-तम सबै लखि भूपति मुख-चंद प्रान लहे तन सी अहो भारत भूमि दिखात ।२४ सन-मयूर हरखित भए गए दुरित दव दरि । दाव जरे कहँ वारि जिमि बिरही कह जिमि मीत । राजकुंअर नव घन सरस भारत-जीवन-मूरि ।९ रोगिहि अमृत-पान मिजि तिमि एहि तोहि लहि प्रीत।२५ हृदय-कमल प्रफुलित भए दुरे दुखद खल-चोर । घर घर में मनु सुत भयो घर घर मैं मनु व्याह । पसर्यो तेज जहान रबि भूपति-आगम भोर ।१० घर घर बाढ़ी संपदा तुव आगम नर-नाह ।२६ नंद-पति-प्यारी सची दंड बज्र गज जान । जैसे आतप तपित कों छाया सुखद गुनात । मंत्रीवर सुर-सह लसत नृप-सुत- इंद्र-समान ।११ जवन-राज के अंत तुव आगम तिमि दरसात २७ भए लहलहे न सबै उलस्यो प्रजा-समाज । मसजिद लखि बिसुनाथ ढिग परे हिय जो घाव । बंदी-पिक गावत सुजस राजकुंअर रितुराज ।१२ ता कहँ मरहम सरिस यह तुव दरसन नर-राव ।२८ बिदलित रिपु-गज-सीस नित नख-बल बुद्धि-प्रभाव। कुँअर कहाँ हम लेहिं तोहिं ठौर न कहूँ लखाय । जन बन पथि सम अति प्रबल हरि भावी नर-राव ।१३ दृग-मग हवै हमरे हिय बैठहु प्रिय तुम आय ।२९ मेलाहू सों बढ़ि सबै सज्यौ नगर को साज । कुँअर कहा आदर करें देहिं कहा उपहार । बुढ़वामंगल तुच्छ कह लखि नव मंगल आज ।१४ तुव मुख ससि आगे लसत तृन-सम सब संसार ।३० ललित अकासी धुज सजे परकासी आनंद । पै केवल अति सुद्ध जिय कहि यह देहि असीस । राका सी कासीपुरी लखि भूपति मुखचंद ।१५ सानुज-माता-सहित तुम जीओ कोटि बरीस ।३१ नौबत-धुनि-मंजीर सजि अंचल-धुज फहराय । जब लौ बानी वेद की जब लौं जग को जाल । कासी तुमहिं मिनार-मिस टेरति हाथ उठाय ।१६ जब लौं नम ससि-सूर अरु तारारन की माल ।३२ मरवट सथिये बसन धुज मौरी तोरन लाय । जब लौं गंगा-जमुन-जल जब लौं मर्यो नदीस । दुलही सी कासीपुरी उलही नव बर पाय ।१७ जब लौं कवि कविता सुथित जब लौं भुव अहि-सीस।३३

  • सन् १८७५ में प्रिंस आफ वेल्स सम्राट एडवर्ड सप्तम के आगमन पर लिखी गयी यह कविता आषाढ़

सं. १९३३ की बाला बोधिनी में छपी थी । इसमें १९वें दोहे के बाद के छह दोहे हरिश्चंद्र कला में भी हैं। भारतेन्दु समग्र २१६