पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२६७

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आवो राज मारत

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में समर्पित करते हैं, कृपा पूर्वक स्वीकार कीजिये और वियोग और अपनी दुर्दशा से संतप्त हो रहा है) बनी हुई इसको कविता नहीं वरञ्च अपनी प्रजा के चित्त के सैरबीन की भी सैर कीजिए और उस परिश्रम को क्षमा पूर्ण उद्गार और समुच्छ्वास समझिए। जिस तरह कीजिए जो इसके पढ़ने में हो, क्योंकि हमने तो चाहा आप और अनेक कौतुक देखते हैं, कृपापूर्वक इस प्रजा| कि थोड़ा ही लिखें और यह बहुत थोड़ा ही है, पर आपको के चित्तरूपी आतशी शीशे से (क्योंकि वह आपके श्रम देने को बहुत है । १ जनवरी १८७७ ई. हरिश्चंद आओ आओ हे जुवराज । गुजराती भाषा धन-धन भाग हमारे जागे पूरे सब मन-काज । | कहँ हम कहँ तुम कहँ यह धन दिन कहें यह सुम संयोग। (गरबी हरिश्चन्द्रकृत) कहं हतभाग भूमि भारत की कहं तुम-से नृप लोग । आवो भारत जोवाने । बहुत दिनन की सूखी, डाढ़ी, दीना भारत भूमि । दई दरसन दुख एन जनम जनमनो खोवाने । लहि है अमृत-वृष्टि सो आनंद तुव पद-पंकज चूमि । ज्यम चन्द्रोदक जोई चकोर जिय राचे रे। बेहि दलमल्यौ प्रबल दल लैकै बहु बिघि जवन-नरेस । ज्यम नव घन आता लखी मोर बन नाचे रे। नास्यौ धरम करम सबहिन के मारि उजार्यो देस । तेहूँ भारतवासी जनो तवागम चाहे जी। पृथीराज के मरें लख्यौं नहिं सो सुख कबहूँ नैन । तरसत प्रजा सुनन को नित ही निज स्वामी के बैन । लखि सुख ससि राजकुमार मुदित मन माहे जी । आवो आवो प्यारा राजकुमार नई दऊँ जावाने । जदपि जवनगन राज कियो इतही बसिकै सह साज । पै तिनको निज करि नहि जान्यौ कबहूँ हिंदु समाज । वाला भारत मां सुख बसो सनेह बधावाने । नई भियू प्रानप्रिय आजे अरज करूं बोलीने । अकबर करिकै बुद्धिमता कछु सो मेट्यौ संदेह । देऊ आज लखाड़ी तमने हिरदो खोलीने । सोउ दारा सिकोह लौं निबही औरंग डारी खेह । म्हारा मारतवासी अनाथ नाथ बने नाथे जी। औरहु औरंगजेब दियो दुख सब विधि परम नसाय । तेथी कोवर बिराजे अइज अम्हारे साथे जी । निज कुल की मरजाद-मान-बल-बुधिहू साय घटाय । ज्यारे जवन-जलधि जले पृथीराज-रवि नास्यौ रे । ता दिन सों दुरलभ राजा-सुख इनहिं इकत निवास । आजे त्यार थकी नहीं भारत तेज प्रकास्यौ रे। राजभक्ति उत्साहादिक को इन कहं नहिं अभ्यास । जदपि राज तुव कुल को इत बहु दिन सों बरसत छेम । ते तुव पद-नख-ससि किरिणै बाणो वापो जी । तदपि राज-दरसन बिनु नहिं नृप प्रज माहिं कछु प्रम । फरी फर्गा भाग्य भारत ना आनंद छायो जी। सो अभाव सब तुव आवन सों मिट्यौ आज महराज वाला दीठड्यो नव मुखचंद कामणगारा नैणावे । पूर्यो प्रेम देस-देसन में प्रमुदित प्रजा-समाज । वारी श्रवण पाइया प्रवणे तव अमृत बैणाबे । आवहु प्रिय नैनन मग बैठो हिय में लेहुँ छिपाय । आजे उमग्यौ आनंद रस सुख चारे पासे छायो छे । तेथी तव जस परम पवित्र कविये गायो छ । जाहु न फिरि तजि भारत को तुम हम सों नेह लगाय । . मानसोपायन मारतेन्दु द्वारा सम्पादित तथा संग्रह में निम्नलिखित सज्जनों की कविताएं प्रकाशित हुई थीं १. श्रीबद्रीनारायण चौधरी प्रभघन हिंदी २ सवैया २४ दोहे-सोरठे २. श्रीरामराज १९ ३. श्रीकल्लू जी ३ ४. श्रीलीलबिहारी शुक्ल २ कवित्त ५. श्रीनारायण कवि १ कुंडलिया ७ दोहे सोरठे ६. श्रीलोकनाथ शर्मा १० ७. श्रीकमलाप्रसाद मुं. १ दो. ७ कवित्त, छप्पय, सवैया ८. श्रीसंतलाल ९. श्रीब्रजचंद १० दोहे। १०. श्रीसंतोषसिंह शर्मा पंजादी २४ दोहे. ५ कवित्त ११. श्रीदामोदर शास्त्री महाराष्ट्री ७ पद छोटे प्रबंध तथा मुक्तक रचनायें २२५ ९छप्पय