पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२७६

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वेणु-गीति रचना काल सन् १८७७ (श्री चंद्रावली-मुख चकोरी विजयते) आपु हरी न होत अचरज यह बड़ो 'हरिचंद' ।३ दोहा राग मल्लार आड़ा चौताला जै जै श्री घनश्याम बपु चै श्री राधा बाम । जै जै सब ब्रज-मुंदरी जै बंदाबन धाम । बड़ी जग कीरति बूंदाबन की । श्री जसुदानंदन की जाऐं छाप भई चरनन की । मायावाद-मतंग-मद हरत गरजि हरि नाम । जयति कोऊ सो केसरी, बंदाबन बन धाम 2 बेनु-धुनि सुनि जहाँ नाचत मत होइ मयूर । गोपीनाथ अनाथ-गति जग-गुरु बिट्ठलनाथ । सिखर पै गिरिराज के सब संग को करि दूर । जयति जुगल बल्लम-तनुज गावत श्रुति गुनगाथ ।३ सबै मोहत देव नर मुनि नदी खग मृग आन । श्री बूंदाबन नित्य हारि गोचारन जब जाहिं । ता समै यह मोर नाचत सुनत बंसी-तान । बिरह-बेलि तबही बढ़े गोपी-जन उर माहि ।। पच्छ यातें धरत सिर पैं श्याम नटवर-राज । तब हरि-चरित अनेक बिधि गावहिं तनमय होइ । कहत इमि 'हरिचंद' गोपी बैठि अपुन समाज ।४ करहिं भाव उर के प्रगट जे राखे बहु गोइ ।५ बिहाग तिताला जो गावहिं ब्रज भक्त सब मधुरे सुर सुम ऋद । रसना पावन करन कों गावत सोइ 'हरिचंद' । धन्य ये मूढ़ हरिन की नार । पाइ बिचित्र बेष नंदनंदन नीके लेहिं निहारि । राग सोरठतिताला मोहित होइ सुनहिं बंसी-धुनि श्याम हरिन लै संग । सखी फल नैन धरे को एह । प्रनय समेत करहिं अवलोकन बाढ़त अंग अनंग । लखिबो श्री ब्रजराज-कुंवर को गौर साँवरी देह । जानि देवता बन को मानहुँ पूजहिं आदर देहिं । सखन संग बन तें बनि आवत करत बेनु को नाद । 'हरीचंद' धनि धनि ये हरिनी जन्म सुफल कर लेहिं ।५ धन्य सोई या रस को जानै पान कियो है स्वाद । राग सोरठ तिताला वह चितपनि अनुराग भरी सी फेरनि चारहुँ ओर । बिमानन देव-बधू रहीं भूलि । 'हरीचंद' सुमिरत ही ताके बाढ़त मैन-मरोर । १ बनिताजन मन नैन महोत्सव कृष्ण-रूप लखि फूलि । सखी लखि दोउ भाइन को रूप । गोप-सखा-मंडल-मधि राजत मनु दै नट के भूप । सुनिकै अति बिचित्र गीतन कों बसी की धुनि घोर । पकित होत सब अंग अंग मैं बाढ़त मैन मरोर । नवदल मोरपच्छ कमलन की माल बनी अभिराम । ता पै सोहत सुरंग उपरना बेष विचित्र ललाम । खुलि खुलि परत फूल की कवरी नीबी की सुधि नाहिं । 'हरीचंद' कोउ चलन न पावत या नभ-पथ के माहिं ।६ नटवर रंगभूमि में सोभित कबहुँ उठत हैं गाय । 'हरीचंद' ऐसी छबि लखि कै बार बार बलि जाय २ देस तिताला राग देस होरी का ताल लखो सखि इन गौवन को हाल । ऐसी दसा पसुन की है जहँ हम तो हैं ब्रज-बाल । बंसी कौन गोपिकन को माग याने आपुही लै पियो । कृष्णचंद के मुख सों निकसै जो बंसी की तान । करत अमृत-पान आपुन औरहू को देत । तो अमृत कों पान करहिं ये ऊँचे करि करि कान । बचत रस सो पिवत हिदिनी वृक्ष लता समेत । बछरा थन मुख लाइ रहे नहिं पीवत नहिं तृन खात । प्रगट हिदिनी तटनि नृन पुन अवत मधु तरू-डार । थन तें पय की धार बहत है नैनन तें जल जात । होत याहि रोमांच वा को बहत आँसू-धार । इक टक लखत गोविंदचंद को पलक परत नहिं नैन । लेन-पुत्र सुपुत्र लखिकै करत दोउ आनंद । 'हरीचंद' जहाँ पसु की यह गति अबलन कों किन चैन ।७ सुकृत कियौ 1 भारतेन्दु समग्र २३४