पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२८

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more (GU वस्तुतः साहित्य साधना से अधिक समाज हित साधना की ओर उनका ध्यान था । उनकी अधिकाश' साहित्य साधना समाजहितसाधना का माध्यम बनी । उनके लेखन का मुश्किल से दस प्रतिधात स्वयं सुखाय होगा, शेष तो देशजन हिताय था । उनकी यही प्रकृति उनके नाटकों के निर्माण के मूल में थी। सामाजिक कुरीतियों और पश्चिमी सभ्यता की भोड़ी नकल करने वाले उनके नाटकों के विषय बनें । उन्होंने विधवा विवाह के समर्थन, बेमेल विवाह का विरोध, मांस खाने के निषेध आदि पर नाटक लिखे । जिनमें नई रोशनी के वाषुओं की मिट्टी पलीद की. पोगा पयियों की भद उड़ायी । नाटक एक ऐसी विधा है जिसमें सभी ललित कलाओं का समावेश हो जाता है, इसीलिए उसमें मनोरंजकता और सभी सामाजिक संदर्भो को छूने की ताकत अधिक होती है। दूसरे नाटक के माध्यम से हम अतीत को वर्तमान में देखते हैं । हम देखते हैं कि हरिश्चंद्र शैव्या से कफन मांग रहे है । अतीत की गौरवगाथा का प्रत्यक्ष दर्शन कराने और वर्तमान की उदपीडक स्थिति पर उत्तेजना पेदा कराने के लिए नाटक से बढ़कर साहित्य की कोई दूसरी विधा नहीं है । इसलिए एक ओर उन्होंने अपने नाटका के माध्यम से बीते गौरव को दिखा एक मरी हुई जाति में प्राण फ़का और दूसरी ओर "भारतदुर्दशा की तस्वीर दिखाकर कुछ करने की प्रेरणा दी। और वह भी ऐसे समय में जब लोगों को मालूम ही नहीं था कि नाटक किसे कहते हैं । सत्य हरिश्चंद्र नाटक में वे लिखते हैं कि "यहां के लोग यह नहीं जानते कि नाटक किस चिड़िया का नाम है।" इसी से उन्होंने यह बताना आवश्यक समझा कि हमारे यहां कैसे-कैसे नाटक थे । उनक इस प्रयल ने संस्कृत और प्राकृत के अच्छे नाटकों का हिन्दी में अनुवाद किया । मुद्राराक्षस, रत्नावती, धनंजय विजय,पाखण्ड विडम्बन संस्कृत से और कर्पूर मंजरी प्राकृत से अनूदित किये गये । दुर्लभवन्धु के नाम से सेक्सपीयर के "मर्चेन्ट अफ बेनिस" का रूपान्तरण उन्होंने प्रस्तुत किया । यतीन्द्रमोहन ठाकुर के नाटक के आधार पर "विद्यासुन्दर" और भारत माता के आधार पर "भारतजननी" नाटक लिखा। अनेक मौलिक नाटकों के बाद अनुवाद की ओर उनका झुकाव मात्र इसलिए था कि वे हिन्दी के नाटकों के लिए व्यग्र दीखते है उतने ही हिन्दी में नाटकों के लिए लगते है । यही कारण है कि अपने समय के सभी हिन्दी लेता को मौलिक नाटक लेखन के साथ-साथ अनुवाद के लिए भा प्रोत्साहित करते रहे थे । बाधू कृष्णादास, पण्डित प्रतापनारायण मिश्र पाबू कृष्णवर्मा, पण्डित बालकृष्ण भट्ट पण्डित बदरीनाथ चौधरी 'प्रेमघन' आदि ने मौलिक नाटकों के साथ अनूदित नाटक भी प्रस्तुत किये। निश्चित रूप से नाटकों के निर्माण में भारतेन्दुबंगला से अधिक प्रभावित जान पड़ते थे। सोचना पड़ेगा कि उनके प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक नीलदेवी पर क्या बंगला के "नील दर्पण" का छाया नहीं । मानसिकता यही है, विद्रोह की पालक वही है। इस नाटक में राजा सूर्यदेव से प्रत्यक्ष युद्ध करन में असमर्थ होने के कारण नबाब धोखे से राजा को बन्दी बनाता है । नवाब के प्रपंच से अभिज्ञ होते हुए भी सूर्य देव धर्म युद्ध करने का निर्णय लेता है।... किन्त उसका पर्मयत निरर्थक होता । अंत म नील देवी छालउन्म से ही काम लेती है। बस नाटक का कय्य है "पाठ प्रति शाय' कर्यात ।" नील दर्पण" के नीलहा साहयों के अत्याचार से जागती जन चेतना का ही विग्रह है नीलदेवी । व्याकल भारत माता की छटपटाहट का प्रयत्य है नीलदेवी। दस दृश्यों के इस गीति रूपक के आरंभ में मारतेन्दु लिखते है:Wirelese छब्बीस