पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२८४

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श्री रामलीला रचना काल सन् १८७९ दोहा पद हरि-लीला सब बिघि सुखदाई । हम जानो तुम देर जौ लावत तारन माहिं । कहत सुनत देखत जिय आनत देति भगति अधिकाई। पाहनह तें कठिन गुनि मो हिय आवत नाहिं ।३ प्रेम बढ़त अघ नसत पुन्य-रति जिय मैं उपजतं आई। तारन मैं मो दीन के लावत प्रभु कित बार । याही सों हरिचंद करत सुनि नित हरि-चरित बड़ाई ।१ कुलिस रेख तुव चरनह जो मम पाप पहार ।४ कवि की उक्ति आहा ! भगवान की लीला भी कैसी दिव्य और धन्य मो ऐसे को तारिबो सहज न. दीन-दयाल । पदार्थ है कि कलिमलग्रसित जीवों को सहज ही प्रभु की | आहन पाहन वजह सों हम कठिन कृपाल ।५ ओर मुका देती है और कैसा भी विषयी जीव क्यों न हो परम मुक्तिह सों फलद तुअ पद-पदुम मुरारि । दो घड़ी तो परमेश्वर के रंग में रंग ही देती है । विशेष | यहै जतावन हेत तुम तारी गौतम-नारि । कर के धन्य हम लोगों भाग्य कि श्रीमान महाराज | एहो दीनदयाल यह अति अचरज की बात । काशिराज भक्त-शिरोमणि की कृपा से सब लीला | तो पद सरस समुद्र लहि पाहनह तरि जात ।७ विधि-पूर्वक देखने में आती है। पहले मंगलाचरण कहा पखानहुँ तें कठिन मो हियरो रघुबीर । होकर रावण का जन्म होता है फिर देवगण की स्तुति | जो मम तारन मैं परी प्रभु पर इतनी भीर ।८ और बकुछ और क्षीरसागर की झांकी से नेत्र कृतार्थ होते | प्रभु उदार पद परसि जड़ पाहनहूं तरि जाय । है। फिर तो आनंद का समुद्र श्री राम-जन्म का हम चैतन्य कहाइ क्यों तरत न परत लखाय ।९ महोत्सव है जो देखने ही से संबंध रखता है, कहने की | अति कठोर निज हिय कियो पाहन सो हम हाल । बात नहीं है। जामें कबहूँ मम सिरहु पद-रज देहि दयाल ।१० कवित्त हमहूँ कछु लघु सिल न सो सहजहि दीनौ तार । राम के जनम मांहि आनंद उछाह जौन लगिहै इत कछु बार प्रभु हम तो पाप-पहार ।११ सोई दरसायो ऐसी लीला परकासी है। फिर श्री रामचंद्र जी सानुज जनक-नगर देखने जाते तैसे ही भवन दसरथ राज रानी आदि है पर नारियों के मन नैन देखते ही लुभाते हैं। तैसो ही अनंद भयो दुख-निसि नासी है । कवित्त सोहिलो वधाई द्विज दान गान बाजे बाजे रंग फूलि-वृष्टि चाल तैसी ही निकासी है कोऊ कहै यहै रघुराज के कुंयर दोऊ कलियुग वेता कियो नर सब देव कीन्हें कोऊ ठाढ़ी एक टक देखे रूप घर में । आजु कासीराज जू अजुध्या कीनी कासी है ।२ कोऊ खिरकीन कोऊ हाट बाट धाई फिरे फिर श्री रामचंद्रजी की बाल-लीला, मुण्डन, बावरी हदे पूछे गए कौन सी डगर मैं । कर्णबघ, जनेऊ,शिकार खेलना आदिज्यों का त्यों होता 'हरीचंद' झूमै मतवारौ दग मारी कोऊ है देखने से मनुष्य भव-दुख मूल से खोता है । फिर जकी सी थकी सी कोऊ सरी एक थर में । विश्वामित्र आते हैं संग में श्रीराम जी को सानुज ले जाते लहर चढ़ी सी कोऊ जहर मढ़ सी भई हैं । मार्ग में ताडिका सुबाहु का बध और फिर चरणरेणु अहर पड़ी है आजु जनक सहर में ।१२ से अहिल्या का तारना । अहा ! धन्य प्रभु के पद-पद्य फिर श्रीरामजी फुलवारी में फूल लेने जाते हैं । उस जिनके स्पर्श से कहीं मनुष्य पारस होता है देवता बनता समय फुलवारी की रचना, कुजों की बनावट, कल के हे कहीं पत्थर तरता है । इस प्रभु की दीन दयाल पर श्री | मोरों का नाचना और चिड़ियों का चहकना यह सब मन्महाराज की उक्ति । देखने ही के योग्य है। भारतेन्दु समग्र २४२