पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२८५

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इतने में एक सखी जो कुंजों में गई तो वहाँ राम रूप ईस करै राउ आज प्रनहिं बिसरि जाय । देखकर बावली हो गई । जब वहाँ से लौटकर आई तो 'हरीचंद' चाहे जौन होइ एई सीअ बरै और सखियाँ पूछने लगी। जो जो होइ बाधक बिधाता करै मारि जाय । चाटि जाहिं धुन याहि अबहीं निगोरो कवित्त बटपारो दईमारो धनु आगि लगै जरि जाय ।१६ कहा भयो कैसी है बतावै किन देह दसा जब धनुष के पास श्री रामजी जाते हैं तब जानकी छनहीं में काहे बुधि सबही नसानी सी । जी अपने चित्त में कहती है। अबहीं तो हंसति हँसति गई कुंजन मैं सवैया कहा तित देख्यो जासों वै रही हिरानी सी । मो मन मैं निहचै सजनी यह 'हरीचंद' काहू कछु पढ़ि कियो टोना लागी तातहु तें प्रन मेरो महा है। ऊपरी बलाय के रही है बिख सानी सी। आनंद समानी सी जगत सों भुलानी सी सुन्दर स्याम सुजान सिरोमनि मो हिअ मैं रमि राम रहा है। लुभानी सी दिवानीसी सकानी सी बिकानी सी ।१३ रीत पतिब्रत राखि चुकी मुख यह सुनकर वह सखी उत्तर देती है। भाखि चुकी आपुनो दुलहा है। सवैया चाप निगोड़ो अबै जरि जाहु चढ़ी तो कहा न चड़ो तो कहा है ।१७ बाहु न जाहु न कुंजन में उत नांहि तो नाहक लाजहि खोलिहौ । लोगों को चिंतित देख श्री रामचंद्र जी धनुष के देखि जौ लैहौ कुमारन कों पास जाते है और उठा कर दो टुकड़े करके पृथ्वी पर अबही झट लोककी लोकहि छोलिहौ । डाल देते हैं । बाजे और गीत के साथ जय जय की भूलिहै देस-दसा सगरी धुन आकाश तक छा जाती है। 'हरिचंद' कछु को कछ मुख बोलिहो । कवित्त लागिहैं लोग तमासे हहा जनक निरासा दुष्ट नृपन बलि बावरी सी हवै बजारन डोलिहौ ।१४ पुरजन की उदासी सोक रनिवास मनु के । कवित्त बीरन के गरब गरूर भरपूर सब जाहु न सयानी उत बिरछन माहिं कोऊ भ्रम मद आदि मुनि कौसिक के तनु के । कहा जाने कहा दोय झलक अमन्द है। 'हरीचंद' भय देव मन के पुहुमि- भार देखत ही मोहिं मन जात नसे सुधि बुधि बिकल बिचार सबै पुर-नारी जनु के । रोम रोम छकै ऐसो रूप सुख-कन्द है । संका मिथिलेस की सिया के उर सूल सबै 'हरीचंद' देवता है सिद्ध है छलावा है तोरि डारे रामचंद्र साथै हर धनु के ।१८ सहाबा है कि रत्न है कि कीनी दृष्टि-बंद है । धनुष टूटते ही जगत-जननी श्री जानकी जी जादू है कि जंत्र है कि मंत्र है कि तंत्र है कि जयमाल लेकर भगवान को पहिनाने चलीं, उसकी तेज है कि तारा है कि रबि है कि चन्द है ।१५ शोभा कैसे कही जाय । वहाँ से दूसरे दिन श्रीरामचन्द्र धनुष-यज्ञ में आते कवित्त हैं और उनका सुंदर रूप देखकर नर-नारी सब यही मानते हैं। चंदन की डारन मैं कुसुमित लता कैधौं पोखराज माखन मैं नव-रत्न जाल है कवित्त चंद्र की मरीचिन मैं इंद्र-धनु सोहे के आए हैं सबन मन भाए रघुराज दोऊ कनक जुग कामी मधि रसन रसाल जिन्हें देखि धीर नहिं हिअ माहि धरि जाय । मैं कुमुद बेलि जनक-दुलारी जोग दुलह सखी है एई मूंगा की छरी मैं हार-गूथ्यौ हरि लाल है की आसा 1 1 'हरीचंद' जुगुल मनाल छोटे प्रबन्ध तथा मुक्तक रचनायें २४३