पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२८७

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YA अति विचित्र तुम चारहु भाई कोउ साँवर कोउ गोरे । 'हरीचंद' उठ चलु अबहूँ बन रे अचेत चित चेत ।२९) परी छाँह के औरहि कारन जिय नहिं आवत मोरे । रामचंद्र बिनु अवध अँधेरो । कौसलेस मिथिलेस दुहुन मैं कहौ जनक को प्यारे । कछु न सुहात सिया-बर बिनु मोहिं राज-पाट घर-घेरो। कौसल्या सुत कौसलपति सुत दुहुँ एक को न्यारे । अति दुख होत राजमंदिर लखि सूनो साँझ सबेरो । चरु सों प्रकटे के राजा सों यह मोहिं देहु बताई । ड्रबत अवध बिरह सागर मैं को आवै बनि वेरो । हम जानी नृप वृद्ध जानि कछु द्विज गन करी सहाई । पसुपंछी हरि बिनु उदास सब मनु दुख कियो बसेरो । तुमरे कुल को चाल अलौकिक बरनि कछु नहिं जाई । 'हरीचंद' करुनानिधि केसव दै दरसन दिन फेरो ।३० भागीरथी धाइ सागर सों मिलि अनंद बढ़ाई । सू बंस गुरु कुलहि चलायो छत्री सबहि कहाहीं । राम बिनु बादहि बीतत सासैं । असमंजस को बंस तुम्हारो राघव संसय नाहीं । धिक सुत पितु परिवार राम बिनु जे हरि-पद-रति नासै। कह लौं कहौं कहत नहिं आवै तुमरे गुन-गन भारी । धिक अब पुर बसिबो गर डारै झूठ मोह की फासैं । 'हरीचंद' तित चलु जित चिरजीओ दुलहा अरू दुलहिन 'हरीचंद' बलिहारी ।२६ हरि-मुख-चंद्र-मरीचि प्रकासे ।३१ फर आनंद से बारात बिदा होकर घर आई । रानियों राम बिनु अवध जाइ का करिए। ने दुलहा दुलहिन को परछन कर के उतारा । महाराज रघुबर बिनु जीवन सों तो दशरथ ने सब का यथायोग्य आदर-सत्कार किया । यह जौ पहिलेहि मरिए। अब हम लोग भी श्री जनक लली नव दुलही की | क्यों उत नाहक जाइ दुसह आरती करके बालकांड की लीला पूर्ण करते हैं। बिरहानल मै नित जरिए । आरति कीजै जनक लली की। 'हरोचंद' बन बसि नित हरि राम मधुप मन कमल कली की । मुख देखत जगहि बिसरिए ।३२ रामचंद्र मुख चन्द चकोरी । राम बिन सब जग लागत सूनो । अन्तर सांवर बाहर गोरी । देखत कनक-भवन बिनु सिय-पिय सकल सुमंगल सुफल फली की । होत दुसह दुख दूनो । पिय दृग मग जुग बंधन डोरी । | लागत घोर मसानहुँ सों पीय प्रेम-रस रासि किसोरी 1 बढ़ि रघुपुर राम बिहनो । पिय मन गति विश्राम थली की । कहि 'हरिचंद' जनम जीवन सब रूप-रासि गुननिधि जग स्वामिनि । धिक धिक सिय-बर ऊनो ।३३ प्रम प्रबीन राम अभिरामिनि । जीवन जो रामहि संग बीतें। सरबस धन 'हरिचंद' अली की ।२७ बिनु हरि-पद-रति और बादि अब अयोध्या काण्ड की लीला प्रारंभ हुई । करुणा सब जनम गंवायत रीते। रस का समुद्र उमड़ चला । श्री रामचंद्र जी के वनवास नगर नारि धन धाम काम सब का कैकेई ने वर मांगा. भगवान बन सिधारे, राजा धिक धिक बिमुख जौन सिय पीते । दशरथ ने प्राण त्यागा । 'हरीचंद' चलु चित्रक्ट मजुभव मृग बाधक चीते ।३४ दोहा फिर भरत जी अयोध्या आए और श्री रामचंद्र जी को फेर लाने को बन गए । वहाँ उनकी मिलन रहन बिनु प्रीतम तृन सम तज्यौ तन राखी निज टेक । बोलन सब मानों प्रेम की खराद थी । वास्तव में जो हारे अरु सब प्रेम-पथ जीते दसरथ एक २८ भरत जी ने किया सो करना बहुत कठिन है। नगर में चारों ओर श्रीराम जी का बिरह छा गया जब श्री रामचंद्र जी न फिरे तब पावरी लेकर भरतजी जहाँ सुनिए लोग यही कहते थे । अयोध्या लौट आए । पादुका को राज् पर बैठा कर राम बिनु पुर बसिए केहि हेत । आप नंदिग्राम में वनचर्या से रहने लगे। यहां धिक निकेत करुणा-निकेत बिनु का सुख इत बसि लेत। भरत जी की आरती करके आयोध्या कांड की लीला देत साथ किन चलि हरि को उत जियत वादि बनि प्रेत। | पूर्ण हुई। छोने प्रबन्ध तथा मुक्नक रचनाये २४५