पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२८८

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10 te आरति आरति-हरन भरत की । सीय राम पद पंकज रत की। "धर्म धुरंधर धीर बीर बर । राम सीय जस सौरभ मधुकर । सील सनेह निबाह निरत की। परम प्रीति पथ प्रगट लखावन । निज गुन गन जस अघ बिद्रावन । परछत पीय प्रेम मूरत की । बुद्धि विवेक ज्ञान गुन इक रस । रामानुज सन्तन के सरबस । 'हरीचंद' प्रभु विषय बिरत की ।३५ 60 भीष्मस्तवराज* रचना काल सन् १८७९ सोंधावत। मेरी मति कृष्ण-चरन मैं होय । पर-जोधन की आयु-तेज-बल देखत जिन हरि लीनो।४ जग के तृष्णा-जाल छोड़ि के सोक-मोह-भ्रम खोय । तिनकी चरन भक्ति मोहिं होई । जादवपति भगवान लेत जो बिहरन हित अवतार । जिन अरजुनहि मोह मैं लखि कै तासु अविद्या खोई । परमानंद रूप मायामय पावत कोउ न पार । सब बेदन को सार ज्ञानमय जिन हरि गीता गाई । यह जग होत जासु इच्छा तें जो यहि देत बिबेक । निज जन-बध-संकाहि मोह मति पारथ की बिसराई।५ तिनही श्री हरिचरन-कमल तें मम चित टरैन नेक १ मेरी गति होउ सोइ बनवारी । मो मन हरि सरूप मैं रहै । जिन मेरी परतिज्ञा राखत निज परतिज्ञा टारी । विजय-सखा-पद-कमल छोड़ि अरजुन कह लखि बिकल बान सों कूदि सुरथर मति छनहुँ न इत उत बहै । को भरे मेरी दिसि आवत कर तें चक्र फिरावत । तृभुवन-मोहन सुंदर श्याम तमाल सरस तन सोहै । जद्यपि पग गहि बहु भाँतिन सो पारथ रोक्यो चाहे । कुटिल अलक-अलि मुख-स -सरोज पर निरखत ही मन मोहै। | पै न सकत जिमि महामत्त गज लखि मृगराज उछाहै । अरुन किरिन सम सुंदर पीत बसन जुग तन पर धारे । गिनत न मम सर-बरसनि कों कछु बध हित धावत आवै। एकहु छिन इन नैनन तें मम कबहूँ होहु न न्यारे ।२ टि रह्यौ तन कवच मनोहर सोभा अधिक बढ़ावै । पीतांबर फहरात बात-बस सो छबि लागत प्यारी । बसै जिय कृष्ण-रूप में मेरो । यह रूप तें सदा बसौ मन मेरे श्री गिरधारी । भारत-चुद-समय जो सुंदर अरजुन रथ पर हेरो । सुंदर अलकावलि मैं रन की धूरि रही लपटाई । मेरे जिय पारथ-सारथि बसिए । सोहत सीकर-बिंदु बदन पर सो छबि लगति सुहाई । इक कर में लगाम दूजे मैं चाबुक लीने बसिए। मम चोखे बानन सों कहुँ कहुँ खंडित कवचहि धारे । जासु रूप लखि मरे बीर जे तिनहूँ हरि-पद पायो । अनुदिन बसो नयन जुग मेरे श्री बसुदेव-दुलारे ।३ मरन-समय मम जिय मैं निबसौ सोई रूप सुहायो १७ जिय तें सो छबि बिसरत नाहीं । हरि मम आँखिन आगे डोली । लखी जौन भारत अरंभ मैं अरजुन के रथ माहीं । छिनहूँ हिय तें टरहु न माधव सदा श्रवन ढिग बोलौ । सखा-बचन सुनि दोउ दल के मधिरथ लै ठाढ़ो कीनो। सरूप लखि के ब्रज-बनिता देह गहे सब त्यागी।

  • हरिश्चन्द्र चंद्रिका खं.६ सं. १५

सितम्बर सन् १८७९ ई. में प्रकाशित भारतेन्दु समग्र २४६