पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२९

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"जब मुझे अंग्रेजी रमणी लोग भेद सिचितकेश राशि, कृतम (त्रि) कुन्तल चूट मिथ्या रत्ना मरण और विविध वर्ण वसन से भूपित क्षीण कटिदेश कसे निजनिज पतिगण के साथ, प्रसन्न वदन इधर से उधर फर फर कल की पुतली की भाति फिरती हुई दिखायी पड़ती है तब इस देश की सीधी-सीधी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुख का कारण होती है । इसमें यह शंका किसी को नहीं हो कि मैं स्वपन्न में भी यह इच्छा करता हूँ कि इन गौरागी युवती समूह की भांति हमारी कुल लक्ष्मीगण भी लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ पूर्म, किन्तु और बातों में जिस भाति अंग्रेजी स्त्रियों सावधान होती है . . . अपना स्वत्व पहचानती है, अपनी जाति और अपने देश की सम्पत्ति विपरित को समझती है, उसमें सहायता देती हैं ... उसी भाति हमारी गृह देषियों भी वर्तमान हीनावस्था को उल्लघन करके कुछ उन्नति प्राप्त करें यही लालसा है।" "यही खालसा" इस नाटक के बनावट और बुनावट के मूल में है । एक ओर आधुनिकता की भोड़ी नकल का तिरस्कार हे और दूसरी ओर सदा से दवायी गयी पादाक्रांत भारतीय नारी अस्मिता के लिए सशक्त उद्बोधन । __भारतेन्दु केवल एक नाटककार ही नहीं थे, अभिनेता भी थे । उनका रंगकर्मी उनके नाटककार से किसी प्रकार भी दुर्बल नहीं था। उन्होंने परसियन थियेटर के चकाचौंध से हिन्दी मंच को निकालकर उसे साहित्यिकता, सार्थकता और उपयोगिता प्रदान की और हिन्दी रंगमंच के संस्थापक होने का श्रेय प्राप्त किया। उन्हीं की प्रेरणा और प्रवल से सन् १९६८ में पण्डित शीतला प्रसाद त्रिपाठी लिखित नाटक जानकी मंगल बनारस थियेटर में खेला गया । रंगसज्जा से लेकर अभिनय तक में उनकी सचि समान रूप में थी ये महिला पात्र का अभिनय करने से हिचिकते नहीं थे। महिला अभिनय करने के लिए एक दिन उन्होंने अपने पिताश्री से मूंछ मुड़ाने की अनुमति मांगी थी। पिता के जीवित रहते मूछे मुहाना हिन्दू शरीअत के खिलाफ था । इस रूढ़ि को तोड़ने की इच्छा जाहिर कर उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व ने अप विश्वास की उस दीवार को ध्वस्त करना आरम्भ कर दिया था जिसने अपनी उपयोगिता खो दी थी। भारतेन्दु का नाम निराशा के समुद्र में अशा का यपू था । भारतेन्दु नाम पा, गुजरती अंधेरी रात में भोर की एक ताजा किरण का । भारतेन्दु नाम था, राष्ट्र की सुप्त चेतना में नवीन स्पन्दन का । भारतेन्दु नाम था इस देश के नवजागरण का । वे भारत के नवजागरण के अग्रदूत हुए । राजाराम मोहन राय आचार्य केशवचंद्र सेन, स्वामी दयानंद ऐसे भारत के नय निर्माताओं से उनकी निकटता थी । वे इन सभी से प्रभाषित होकर भी इनसे अलग थे । पौराणिक वाड़मय और मूर्तिपूजा के विरोध के कारण वे स्वामी दयानंद के कट्टर विरोधी थे, पर अंध विश्वासों पर कुठाराघात करने और पश्चिमी ज्ञान की अच्छाई के समंचन और उनके समाज सुधारक दृष्टि के कारण वे उनके प्रशंसक भी । ईसाइयत परस्त होने के कारण वे केशवचन्द्र सेन की पक्ति में भी पैठने को तैयार नहीं थे। स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन करवा कर उन्होंने स्वामी दयानंद और केशव चन्द्र सेन के प्रति अपनी धारणा को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है । इन महानुभावों की देश सेवा और समाज सुधार की भावना के ये मुक्त कंठ से प्रशंसक थे । स्व. राय कृष्ण दास जी ने एक साक्षात्कार के दौरान बताया था कि जब दयानंद जी पडने पहल बनारस आये थे तब इस नगर का कोई पोगा पण्डित उनकी अगुआई करने स्टेशन पर नहीं गया था । यदि गये थे तो केवल दो सज्जन एक वे स्वयं और दूसरे स्व. डा. भगवान दास जी के पूज्य पिताश्री माधवदास जी। ਚਰਚ