पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३०

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18 वे परम वैष्णव थे, पर वैष्णवता की व्याख्या उन्होंने धार्मिक कूप मंडूकता से बाहर निकल कर १० की थी। वे यथार्थ की धरती पर थे, "जब पेट भर खाने को ही नहीं मिलेगा, तबधर्म कहाँ बाकी रहेगा ? उनकी आमादा थी "शेव, शाक्त, सिक्ख, जो हो. सबसे मिलो । उपासना एक हदय की रत्न वस्तु है । उसके कार्य क्षेत्र में फैलाने की कोई आवश्यकता नहीं । पैष्णव शेष ब्राहमण, आर्य समाजी, सब अलग-अलग पतली डोरी हो रहे हैं। इसी से ऐश्वर्यरुपी मस्त हावी उनसे नहीं बंधता । इन सब डोरियों को एक में बांधकर मोटा रस्सा बनाओ, तब यह हाथी दिगदिगन्त भागने से सकेगा । अर्थात अब यह काल नहीं है कि हम लोग भिन्न-भिन्न अपनी खिचड़ी अलग पकाया करें । अब महाघोर कालिकाल उपस्थिति है । चारों ओर आग लगी हुई है । दरिद्रता के मारे देश पला जाता है।... सब लोग एकत्र हो । हिन्दू नामधारी वेद से लेकर तंत्र वरच भाषा ग्रंच मानने वाले तक सब एक होकर अब अपना परमधर्म यह रक्यों कि आर्य जाति में एका हो । इसी में धर्म की रक्षा है । भीतर तुम्हारे चाहे जो भाव और जैसी उपासना हो, ऊपर से सब आर्य मात्र एक रहो । धन सम्बन्धी उपाधियों को छोड़कर प्रकृत धर्म की उन्नति करो।" वैष्णव धर्म को प्राकृत धर्म से जोड़कर भारतेन्दु ने पूरी वैष्णव अवधारणा को एक नया आयाम दिया । उसकी अनेक वन्द खिड़किया खोली । ताजी हवा में वैष्णव धर्म ने सांस ली और एक ऐसी वैष्णवता तैयार हुई जो गांधी को भी रास आयी। (२) "वैष्णवजन तो तेने कहिए जो पीर परायी जाणो रे।" इस दृष्टि से भारतेन्दु निश्चित रूप में श्रेष्ठ वैष्णव थे । दूसरे की पीर को अपनी पीर समझते थे। कोई भी दीन दुखी उनके दरबार से असन्तुष्ट नहीं लौटा । जो गया उसी ने कुछ न कुछ पाया । वे दोनों हाथों से खटाते थे, "जो लूट सके सो लूट । ... और जब लूटनेवाला नहीं होता था, तो लोगों ने उन्हें लक्ष्मी को जलाते हुए भी देखा था। एक बार एकान्त में बैठकर भारतेन्दु जी बड़े शान्त भाव से मोमबत्ती में एक सौ का नोट जला रहे थे। उन दिनों के सौ के नोट के भीतर एक चमड़े की झिल्ली होती थी। जिसके जलने पर दुर्गन्ध निकलती थी । उनके एक चाकर अभिभावक ने जब यह दृश्य देखा तो चकित हो बोला, "बबुआ यह क्या ?" पक्षा बड़े ही निस्पृह भाव से मुस्कराये और बोले, "मैं यह देख रहा हूँ कि लक्ष्मी में कितनी दुर्गन्ध है।" उन्हें धन से कभी भी किसी सुगन्ध का भास नहीं हुआ। एक वितृष्णा सी थी। उसे वे अपने परिवार का विनाशक भी मानते रहे । इसी से वे अपने धन के विनाश में सदेव तत्पर विछ । एक समय ऐसा भी आया जब वे कर्जदार हो गये थे। ऐसा व्यक्ति यदि लोगों से घिरा रहे. तो आश्चर्य क्या आप जब सडक छाप नेता एक प्याला चाय पर अपना दरबार लगवाते हो तो. दोनों हाथों नटाने वाले व्यक्ति के यहां लोग जमे रह हाता आश्चर्य क्या ? इसी स्थिति को देखकर भारतेन्दु की दरबारी प्रकति पर लोग अंगुली उठाते है । पर में नहीं समझता कि वे दरबारी प्रकृति के व्यक्ति थे। Maker अट्ठाइस -Atta