पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३०१

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स्फुट कविताएँ हम चाहत है तुमको जिउ से तुम नेकहू नाहिने बोलती हो। यह मानहु जो 'हरिचंद' कहै केहि हेत महाविष घोलती हो। केहि हेत महाविष घोलती हो । तुम औरन सो नित चाह करौ हमसों हिअ गाँठ न खोलती हो । इन नैन के डोर बंधी पुतरी तुम नाचत औ जग डोलती हो । २ दोहे और सोरठे आदि है इत लाल कपोल ब्रत कठिन प्रेम की चाल । मुख सो आइ न भाखिहै निज सुख करो हलाल ।१ प्रम बनिज कीन्हो हुतो नेह नफा जिय जान । अब प्यारे जिय की परी प्रान-पुंजी में हान ।२ तेरोई दरसन चहें निस-दिन लोभी नैन । श्रवन सुनो चाहत सदा सुंदर रस-मै बैन ।३ डर न मरन विधि बिनय यह भूत मिलें निज बास । प्रिय हित वापी मुकुर मग बीवन अँगन अकास ।४ तन-तरु चढ़ि रस चूसि सब फूली-फली न रीति । प्रिय अकास-बेली भई तृव निर्मूलक प्रीति ।५ पिय पिय रटि पियरी भई पियरी मिले न आन । लाल मिलन की लालसा लखि तन तजत न प्रान । मधुकर धुन गृह दंपती पन कीने मुकताय । रमा बिना यक बिन कहै गुन बेगुनी सहाय ।७ चार चार षट षट दोऊ अस्टादस को सार । एक सदा द्वै रूप धर जै जै नंदकुमार ।। नीलम औ पुखराज दोउ जद्यपि सुख 'हरिचंद' । पै जो पन्ना होइ तो बाढ़े अधिक अनंद ।९ नीलम नीके रंग को हौं लाई हौं बाल । कहुँ न देय तो होयगो अति अद्भुत अहवाल ।१० जद्यपि है बहु दाम को यह हीरा री माय । बनै तबै जब नीलमनि निकट जइयो यह जाय ।११ नैन नवल 'हरिचंद' गुन लाल असित सित तीन । त्रिविध सक्ति वैदेव के तिरबेनी के मीन ।१२ कहन दीन के बैन देहु विधाता एक बर । नहिं लागै ये नैन कोऊ सो जग नरन में ।१३ प्रम-प्रीति को बिरवा चलेहु लगाय । सींचन की सुध लीजो मुरझि न जाय ।१४ सवैया जा मुख देखन को नितही रुख तिन दासिन को अवरेख्यो । मानी मनौतीह देवन की 'हरिचंद' अनेकन जोतिस लेख्यो । सो निधि रूप अचानक ही मग में जमुना जल जात मै देख्यो । सोक को थोक मिट्यो सब आजु असोक की छाँह सखी पिय पेख्यो ।३ रैन में ज्यौहीं लगी झपकी त्रिजटे सपने सुख कौतुक-देख्यो । लै कपि भालु अनेकन साथ में तोरि गढ़े चहुँ ओर परेख्यो । रावन मारि बुलावन मो कहें सानुज मैं अबहीं अवरेख्यो । सोक नसावत आवत आयु असोक की छाँह सखी पिय पेख्यो ।४ अब और के प्रेम के फंद परे हमें पूछत कौन, कहाँ तू रहै । अहै मेरेह भाग की बात अहो तुम सों न कछु 'हरिचंद' कहै । यह कौन सी रीति अहै हरिजू तेहि मारत हो तुमको जो चहै । बह भूलि गयो जो कही तुमने हम तेरे अहे तू हमारी अहै । १ सदा चार चवाइन के डर सों नहि नैनहु साम्हे नचायो करें । निरलज्ज भई हम तो पै डरै तुमरो न चवाव चलायो करें । 'हरिचंद' जू वा बदनामिन के डर तेरी गलीन न आयो करें। अपनी कुल-कानिहुँ सों बढ़िके तुम्हरी कुल-कानि बचाओ करै ।५ ताजि के सब काम को तेरे गलीन में रोजहि रोज तो फेरो करे । स्फुट कविताएँ २५९