पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३०३

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10* खेलत गोपाल 'हरिचंद' राधिका के साथ बुक्का एक सोहत कपोल की लुनाई में । कैधौं भयो उदित मयंक नभ बीच कैंधों हीरा जख्यो बीच नीलमनि की जराई में + कैधों पर्यो कालिंदी के नीर छीर कैचों गरक सु-गोरी भई स्याम-सुंदराई मैं ।१ गोपिन की बात कों बखानों कहा नंदलाल तेरो रूप रोम रोम जिनके समाय गो । बिरह-बिधा से सब ब्याकुल रहत सदा 'हरीचंद' हाल वाकी कौन पै कहाय गो । आँसुन की प्रलय-पयोधि बूड़ि जैहै जब ड्रबि बि सब ब्रहमंडह बिलाय गा। पौड़त फिरौगै आप नीर बीच होय जब बिरह-उसासन से बट जरि जाय गो ।२ अy एरे गजराज तेरी सबही बढ़ाई है। दान धारा दै दै सदा तोषत सबन नित हिंसा सो विरत तऊ बल अधिकाई है। तासौ 'हरिचंद' मरजाद पै रहन नीको काक चुगलन की जासों बनि आई है । बिरद बढ़ावें ये न दूर कर इन्हें तेरे कान की चपलताई भौर दुखदाई है।६ बात गुरुजन की न आछी लरकाई लागै भावै खेल कूद में चपलता असीम की । छोड़त कसालो होय जदपि नरन तऊ बान नाहिं नीकी मद भांग के अफीम की । अवगुन करी लड़ पेड़ा सौ गुनद 'हरिचंद' हित होय जग औषधि हकीम की । जौन गुनदाई सोई बात है सुहाई तासों नीकी मधुराईह सौ तिक्तताई नीम की ७ तेरेई बिरह कान्ह रावरे कला-निधान मार बान मारै सदा गोपिन के घट पै । व्याकुल रहत ताते रैन दिन आप बिन धूर छाय रही देखौ नागिन सी लट पै 1 'हरीचंद' देखे बिनु आज सब ब्रज-बाल बैठि के बिसूरती कलिंदी जू के तट पै । होयगी प्रलय आज गोपिन के आँसुन तें ताते ब्रज जाय बैठो भट बसी बट पै ।३ गोपिन बियोग अब सही नहीं जात मोपै कब लौं निठुर होय मैन-बान मारोगे । 'हरीचंद' आप सों पुकारे कहौं बार बार बेगही कृपाल अबै गोकुल सिधारोगे । कहत निहोरि कर जोरि हम पू• जौन राधा-रौन ताको कौन उत्तर बिचारोगे । आँसुन को नीर जबै बाढ़ेगो समुद्र तबै कच्छ रूप धारौगे मन्छ रूप धारोगे ।४ जही बक बार सुने मोहे सो जन्म भरि ऐसो ना असर देख्यौ जादू के तमासा मैं । अरिहु नवावें सीस छोटे बड़े रीमै सब रहत मगन नित पूर होइ आसा में । देखी ना कबहुँ मिसरी से मधुहू में ना रसाल, ईख, दाख में न तनिक बतासा मैं । अमृत मैं पाई ना अधर मैं सुरंगना के जेती मधूराई भूप सज्जन की भासा मैं ।८ केलि-भौन बैठी प्यारी सरस सिंगार करै सौतिन के सब अभिमानै दरत सो । कंठ-हार चूरी कर बाजूबंद चंद आदि पहिन्यो अभूषन बियोगहि हरत सो । पगपान चांदी को चरन पहिरन लागी सोभा देखि रभा-रति गर्ब गरत सो । छोड़ अभिमान दास होन काब चंद आज नवल बधू के मानो पायन परत सो । राधा-श्याम सेवे सदा बंदाबन वास करै रहै निहचित पद आस गुरुवर के । चाहे धन धाम न अराम सों है काम 'हरिचंद जू भरोसे रहैं नंदराय-घर के । एरे नीच धनी हमें तेज तू दिखावै कहा गुज परवाही नाहिं होहिं कबौं खर के । होइ ले रसाल तू भलेई जग-जीव काज आसी ना तिहारे ये निवासी कल्पतर के । जदपि उँचाई धीरताई गरुआई आदि वृंदाबन सोभा कछु बरनि न जाय मोपें नीर जमुना को जहं सोहै लहरत सो। फूले फूल चारों ओर लपटै सुगंध तैसो मंद गंधवाह विय तापहि हरत सो । चाँदनी में कमन-कली के तरें बार बार 'हरिचंद' के प्रतिबिब नीर माहिं बगरत सो । मान के मनाइबे को दौरि दौरि प्यारो मात्र नवल वधु के मानो पायन परन सो ।१० आजु कृज-मंदिर बिराजे पिय प्यारी दोऊ t** स्फुट कविताएँ २६१