पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३०७

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raange हे बलवीर अभी 'हरिचर पारि पीठि जिनि दी ।२६ | नैन नचावत मेरो सन परसत सुदर नंद-दुलारो ।२०/लहजोर अवमाह आपुनो दया-परिन्द्रा ली। हाव गुजन के हार की ।२४ | हमही कियो कृपाल तुमहि अप-तीरन हमति बनायो । किन सुख में दख दिये जु उठि इत भोरहि भोर पधारे। हम जानी यह पानि नाच की पतितन ही सो प्रीति । मेरे जान कर तमचुर यह तुम कह सुरत दिवाई। सहजहि कृपा कृपिन-दिसि गामिनि यह आपकी रीति । क दिज-गन के चहकि चिरैवन मेरी श्रास पूजाई।ताही सोंध किये अनेकन करत जात दिन-रात । सीरी पौन अरुन किरिनार्वात भए सहाय पियारे।तकनतरत परत धन्य भाग जो अबह उठके आए मवन हमारंकिग करत असतकोगे जवलोपत्रमें जी। भानो रन पनोटों प्यारे सोड रदौ मम भारी। 'हरीनंद' मुनि बचन रनन तिय गर लाई बनवारी २६/न-बन्धनताति-मजन आरत-हरन मुरारि । अजामेल मैं का अवगन जे नहि तन माहि हमारे। साधन-रहित सहित अघ सत सका सुखदाता संग गोपी आली | जानी और पतित के माथे सीग रही है भारी । बजत झांभ मृदंग भावव चंग बीना ताल । तब बिन हमाह देखि नहि तारत भूधा-विपिन-बिहारी । गत बाल 'हरिनंद' टांब लांब सुभग श्याम तमाग ।२१ जो पापडि करिव मो जग में जीप पतित कहलाये।। | तो हमसों बढ़ि के कोउ नाहीं को मेरी सरि पाये। भोजन की प्रान-पियारी। कड़ तो बात होइझे जासों तारत हम कह नाही। | भई बड़ी बार हिंडोले झूलत अब भयो भ्रम भारी । नाही तो हरिचंद' पतित-पति हाम कित चि जाहीं ॥२७ विजन मीठो दूध सहातो कीजे पान दुलारी । चूठन मांगत द्वार खड़ो है हरीचंद' बलिहारी ।२२ तरन मैं मोहि लाभ कइ नाही। पनघट बाट घाट रोकत जसुदा जी को पारो । | साँवरे यरन श्याम स्याम ही सत्यौ तुमरेई हित कहत आत यह मुनि देखह मन माहीं । तुमरेह जित्र व लौ बाकी यह होस चलि आई। है साज इन इन असियन को सारो। के कोउ कठिन अधी पायें तो तारि बढ़िाई। मुनि बजावत गीतन गावत | बहुत दिनन की तुमरी इच्छा तेहि पूरन में आयो । करत अचगरी प्यारो। करह सफल सो हम सो बदि कोउ पापी नहि जगायो । 'हरीनद' इंडरी जमुन मैं वहावत मन खालचावत वजन लगी बंसी यार की। धुनि सुनि ब्रज-तिय चकित होत है सृधि आवत दिलाकर की। मीठी तान लेत नित मोहयो चितवन तीसी यार की। बजन लगी बंसी कान्ह की । पनि सुनि चकित भए लग मग सब सुधि न रही कछु प्रान की। 'श्रम विसरी सुधिह अपान की' ॥२५ किन चौकाए पीतम प्यारे । को अबलौं हम तात । हम मैं कोन कसर पिय प्यारे । तुव । जस हमाहि बढ़ाचन-हारे । तुप गुन दिव्य तारनादिक के कारन हमहि पियारे । | छिपी दया नव मेहि य में यह निहवे विय जानी । हम बिन तुम जग कदम बढ़ाई यह प्रसीत कर मानौ । कंवल विभुवन-यति फलदायक न्याय करत रहि जैथे । | दया-निधान पतित-पावन प्रभु हमरे हेत कहैये । 'हरीचंद' नैनन में गांद गई यह गुन मानि हीन 'हरिवदहि' क्यों न अवहुं अपनायौ ।२९ मोहे देष गंधरव सिंस मुनि हमरी स्वारथ ही की प्रीति । तुष गुनह स्वारथ हित गावत मानह नाथ प्रीतीति । बक-धरमी स्वारथ-मूलक सब प्रेम भक्ति की रीति । हरीचद' ऐसे छलियन सकिहो नाच नजीति ३० 'हरीचंद' को मन मोयो भूले गति जु बिमान की। अब हम बदि यदि के अब करिहै जब सब पतितन सो बढ़ि जैहे तब ही भव-जल तरिहे

नहिं जानी व जा सों दृष्टि परे तुमरी इस सुंदर सावर पीत्र वयानिधान कृपन-जन-वत्सल निज गुन नाम सम्हारि। | पावन परम पतित हरि हम कह हीन जानि उठि पात्रो स्फुट कविताएँ २६५