पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३०८

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लखि 'हरिचंदहि' अपनाओ ।३१ देखहु मेरी नाथ ढिठाई। होइ महा अघ-रासि रहन हम चहत भगत कहवाई। कबहूँ सुधि तुमरी आवै जो छठे-छमाहें भूले । ताहि सों मनि मानि प्रम अति रहत संत बन फूले । एक नाम सों कोटि पाप को करन पराछित आवै । निज अघ बड़वानलहि एक ही आंसू बूंद बुझावें । जो व्यापक सर्वज्ञ न्याय-रत धरम-अधीस मुरारी । 'हरीचंद' हम छलन चहत तेहि साहस पर बलिहारी।३२ स्याम घन देखहु गौर घटा । मरी प्रम-रस सुधा बरसि रही छाई छुटि छटा । आपुहि बादर रूप जल भरी आपुहि बिज्जु लटा । यह अद्भुत लखि सिखी सखीगन नाचत बैठि अटा । हिय हरखावत छबि बरखावत मुकी निकुंज तटा । 'हरीवंद' चातक हवै निसि-दिन जाको नाम रटा ।३३ आजु बसंत पंचमी प्यारे आओ हम तुम खेलें । चोआ चंदन छिरकि परसपर अरस परस रंग मेलें । और कहूँ जिनि जाहु पियरे हम तुम मिलि रस रेलैं । तुम मोहिं देहु आपुनी माला हम निज तुअ उर मेलें । प्राननाथ कह कंठ लाइ के आनंद-सिंधु सकेलें । 'हरीचंद' हिय-होस पुजावै बिरहहि पायन ठेलें ।३४ आई है आजु बसंत पंचमी चलु पिय पूजन जैये । आम मंजरी काम चिनौती लै पिय सीस बंधैये । अति अनुराग गुलाल लाइ के नव केसर चरचैये । उद्दीपन सुगन्ध सोंधे मृगमद कपूर छिरकैये । पुष्प-गेदुकन परसि पिया को तन में काम जगैये । संचित पंचम ऊँचे सुर सों काम-बधाई गैये । आलिंगन परिरंभन चुम्बन भाव अनेक दिखैये । 'हरीचंद' मिलि प्रान-पिया सों सरस बसंत मनैये ।३५ नव दूलह ब्रजराय-लाडिलो नव दुलहिन बृषभानु-किसोरी श्री बृन्दाबन नवल कुंज में खेलत दोउ मिलि होरी । | नव सत साजि सिंगार अभूषन नवल संग गोरी । नवल सेहरो सीस बिराजत नवल बसन तन राजै । त्रिमुवन-मोहन जुगल-माधुरी कोटि मदन लखि लाजै । अति कमनीय मनोहर मूरति ब्रज-जन यह रस जानें । 'हरीचंद' ब्रजचंद-राधिका तजिके किहि उर आने ।३६ कुंज-बिहारी हरि-सँग खेलत कुंज-बिहारिनि राधा । आनंद भरी सखी सँग लीन्हे मेटि बिरह की बाधा । अबिर गुलाल मेलि उमगावत रसमय सिंधु अगाधा । धुंधर मैं मुकि चूमि अंगभरि मेटति सब जिय साधा । - कूजति कल मुरली मृदंग सँग बाजत धुम किट ताधा । बृन्दाबन-सोभा-सुख निरखत सुरपुर लागत आधा । मच्यो खेल बढि रंग परसपर इत गोपी उत कांधा । 'हरीचंद' राधा-माधव कृत जुगल खेल अवराधा ।३७ सरस साँवरे के कपोल पर बुक्का अधिक बिराजै । मनहु जमुन-जल पुंज छीर को छीट अतिहि छबि शत्रै । नील कंजपे कलित ओस-कन फलकत तियनि रिझावै प्रिया-दीठि को चिन्ह किधौं यह ब्रज-जुवती मन भावै । सूछम रूप सकल ब्रज-तिय को बस्यो कपोलनि आई। 'हरीचंद' छबि निरखि हरषि हिय बार बार बलि जाई ।३८ नव बसंत को आगम सजनी हरि को जनम सुहायो । गावत कोकिन कीर मोर सी जुवती बजत बधायो । बिबिध दान लहि जाचक जन से कलित कुसुम बहु फूले। गुग गावत धावन बंदीजन से भँवरे बहु भूले । उड़त गुलाल अबीर रंग सो दधि-काँदो झरि लाई । नाचत गारी देत निलज से गावत ताल बजाई। टेसू फूलन मिस वृन्दाबन प्रकट्यौ जिय अनुरागै । केसर-सिचित सम सरसों-बन नैन सुखद अति लागे । गोप पाग पहिरे सब सोभित गेंदा तरु इक-रासी । बौरे आम सरिस डोलत आनंद-बौरे ब्रजरासी । बंस-बेलि लहरानी नँदजू की अति सुख झालरि लाई । तरुन तमाल स्याम घन उपजे 'हरीचंद' सुखदाई ।३९ पिया मन-मोहन के सँगे राधा खेलत फाग । दोउ दिसि उड़त गुलाल अरगजा दोउन उर अनुराग । रंग-रेलनि मोरी मेलनि मैं होत गनि की लाग । 'हरीचंद' लषि सो सुख-सोभा अपुन सराहत भाग ।४० शोभा कैसी छाई । कोइल कुहुकै भंवर गुंजारै सरस बहार फूलि रही सरसों अँखियन लगत सुहाई, देखो । बीती सिसिर बसन्तहु आई फिर गई काम-दुहाई । बौरन आम लग्यो मन बौर्यो बिरहिन बिरह सताई, देखो जान न देहौं तुहि ऐसी समय में लैहों लाख बलाई । 'हरीचंद मुख चूमि पियरवा गरयाँ रहिहाँ लाई, देखो।४१ रिमझिम बरसैपनियां घर नहिं जनियाँ कैसे बीते रात । मोर सोर घनघोर करत है सुनि सुनि जीअ डरात । सूनी सेज देखि पीतम बिनु धीरज जिय न धरात । पिय 'हरिनंद' बसे परदेसवा मोर जोबवना नाहक जात ।४२ देखो साँवरे के संगवां गोरी फूलेली हिंडोर भारतेन्दु समग्र २६६