पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३१

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10104* - * एक ऐसा व्यक्ति जो परम्परा से चली आयी सामन्ती मर्यादाओं को तोड़कर कजली और लावनी बाजों के बीच बैठकर कजली भी गाता हो, जिसके दोस्तों में काशी नरेश से लेकर गली का आम आदमी तक हो । जो सबसे मिलता जुलता हो, सबके दुख सुख में शरीक होता हो जिसके परायी पीर की बाह सड़क के किनारे सर्दी से ठिठुरते भिखमंगे पर अपना कश्मीरी दुशाला डाल देती हो, क्या यह दरबारी प्रवृत्ति का हो सकता है। वस्तुतः उनका व्यक्तित्व उन सभी अवरोधों को लांघकर बाहर निकल रहा था, जो उन्हें सामन्ती जीवन में बांधने की असफल चेष्टा कर रहे थे वह दरबार जुटाकर भी दरबार के कितने बाहर थे. यह उनके पौत्र डा. मोती चन्द्र जी के कथन से स्पष्ट होता है: ___ "भारतेन्दु का हंसता हुआ व्यक्तित्व बनारस की कहावत बन गया है। भारतेन्दु शायद ही किसी से अप्रसन्न हुए हो, अपने निकट विरोधियों को भी वह अपनी सरलता और हास्य प्रियता से अपने पस में कर लेते थे । हिन्दी को लेकर राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' से जो उनका विवाद हुआ था, वह इतिहास प्रसिद्ध घटना है । पर जहां तक राजासाहब के साथ उनके पारस्परिक सम्बन्ध का प्रश्न था, उसमें कटुता नहीं आई और वह राजा साहब को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते थे। उनके खुले विचारों के कारण बनारस के वैष्णव अप्रसन्न रहते थे । पर ये बराबर उनके विरोध को हंस कर टाल देते थे। इसी जिन्दा दिली के फलस्वरूप उन्होंने रईसी को ताक पर रखकर बनारस के सर्वसाधारण से अपना परिचय बढ़ाया और बराबर उनके साथ हंसे हसाये । प्रेम योगिनी का यथार्थ वाद इस बात का परिचायक है कि भारतेन्दु ने अपने युग के बनारस की डूबकर झांकी ली और उसकी बुराइयों और भलाइयों को हंसकर हमारे सामने रखा ।" 'परायीपीर' के प्रति भारतेन्दु की अत्यधिक संवेदनशीलता ही उन्हें जनहित समाजहित और देशहित के प्रति सोचने के लिए विवश करती थी । अपनी सोच को पाणी देने के लिए ही उन्होंने तीन पत्रों का प्रकाशन किया था । "कषि वचन सुधा", "हरिश्चन्द्र चन्द्रिका" ("हरिश्चन्द्र मैगजीन" ही आठ अंको के बाद हरिश्चन्द्र चन्द्रिका हो गयी थी) और "बाला बोधिनी" । कहते हैं कि अपनी धार्मिक भावना को अभिव्यक्ति देने के लिए भी उन्होंने भक्ति की एक मैगजीन निकाली थी । इनके अलावा अपने समय की अनेक पत्र पत्रिकाओं के वे प्ररेक थे, वे मानते थे कि जन जागति के लिए पत्र पत्रिकाएँ ही सबसे अच्छे माध्यम है । पर पत्र-पत्रिकाओं की उत्पत्ति के लिए उस युग में मौसम अनुकूल नहीं था । प्राहक बनाने में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था । कोई कहता था-"अखबार पढ़कर सुना जाया कीजिए" । कोई कहता था-"दाम ले लीजिए, पिण्ड छोडिए । अखबार मेजिए चाहे न भेजिए।" ऐसे माहौल में पत्र पत्रिकाएं निकालना स्वयं में एक साधना थी । पढ़ने की रुचि नहीं थी। खरीदने की इच्छा नहीं थी। जिन्हें इच्छा थी, उनके पास पैसा नहीं था । इन सभी परिस्थितियों का सामना भारतेन्दु मंडल के अनेक सदस्यों ने सेवा और समपर्ण की भावना से किया, क्योंकि वे जानते थे कि जिन विचारों के लिए वे संघर्ष कर रहे हैं, वे समाचार पत्र उनकी किलेवन्दिया है । इसी किलेबन्दी के लिए "हिन्दी प्रदीप" निकालने में पं. बालकृष्णभट्ट को क्या नहीं झेलना पड़ा। कहते है. वे अपने पत्र के लिए स्वयं मेटर लिखते थे, कम्पोज करते थे और आवश्यकता हुई तो ग्राहकों के यहां पहुंचवाते भी थे। आरम्भिक युग होते हुए भी इस युग को पत्रकारिता में भटकाव नहीं था। उनके सामने लक्ष्य था. स्पष्ट उद्देश्य था। "हरिश्चन्द्र मैगजीन" का टाइटिल पेज अंग्रेजी में छपता था । उस पर एक उद्घोषणा उपती थी: -Ados उनतीस