पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३१०

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टेक तज वल्लभ सरन अब आव रे ।५७ मनु मत्त भंवर पायो सुबास ।५३ महारानी तिहारो घर सुबस बसो । आयु सुफल ब्रजबास भयो सब घर घर अति आनंद रसो। | कोउगावत कोउ करत कोलाहल माखन को कोउलेत गसो | श्री राधा के प्रकट भये ते या बरसानो सुख बरसो । देत असीस सदा चिर जीवो मोहन को सँग लै बिलसो । 'हरीचंद' आनंद अति बाढ्यौ सब जिय को दुख दरद नसो ।५४ मन की कासों पीर सुनाऊं। बकनो बृथा और पतिखोनो सबै चवाई गाऊं। कठिन दरद कोऊ नहिं धरिहै धहिहे उलटो नाऊँ । यह तो जो जाने सोइ जाने क्यों करि प्रकट जनाऊँ । रोम रोम प्रति नयन वन मन केहि धुनि रूपलखाऊँ । बिना सुजान सिरोमनि री केहि हियरो काढ़ि दिखाऊँ । | मरमिन सखिन बियोग दुखित क्यों कहि निज दसा रोआऊँ 'हरीचंद' पिय मिले तो पग गहि बाट रोकि समझाऊँ ।५५ हठीरो दे दे मेरी मुंदी। हा हा करत हौं पइआँ परत हौं गुरुजन माझ खरी । 'हरीचंद' तुम चतुर रसीले बहियाँ पकरी ।५८ बिनु सैयाँ मोको भावै नहि अंगना । चंदा उदय जरावत हमको बिष सो लगत कंगना ।५९ पिय की मीठी मीठी बतियाँ । श्रवन सुहावत सुधा-रस सानी कहत लाइ जब छतियाँ । बोलत ही हिय खचित होत मनु मैन लिखत मन पतियाँ । 'हरीचंद' पूरन हिय करनहिं रहत सदा बनि थतियाँ ।६० तरल तरगिनि भव-भय-भगिनि जय जय देवि गंगे । जगदघ-हारिनि करुना-कारिनि रमा-रंग-पद रंगे । नवल बिमल जल हरत सकल मल पान करत सुखदाई। पापहि नासत पुन्य प्रकासत जलमय रूप लखाई। कच्छप मीन भ्रमरमय सोभित कृपा-कमल-दल फूले । देव-बधू-कुच-कुंकुम रंजित लखि छबि सुर नर भूले । शिव-सिर-बासिनि अज-कमंडलिनि पतित मंडलिनि तारो 'हरीचंद' इक दास जानि के करुन कटाच्छ निहारो ।६१ हरिजू की आवनि मो जिय मावै । लटकीली रस-भरी रंगीली मेरे दृगन सुहावै । निज जन दिसि निरखनि दृग भरि के हँसनि मुरनि मन माने बेनु बजावनि कटि कसि धावनि गावनि करि रस दाने । बक बिलोचन फेरनि हेरनि सब ही चित्त चुरावै । 'हरीचंद' भूलत नहिं कबहूँ नित सुधि अधिक दिवावै ।३२ तू केहि चितवत चकित मृगी सी । केहि ढूँढ़त तेरो कह खोयो क्यों अकुलात लखाति ठगी सी । तन सुधि करि उघरत ही आँचर कौन व्याध तू रहति खगी सी। उत्तर देत न खरी जकी ज्यों मद पीये के रैनि जगी सी। चौंकि चौकि चितवति चारिहु दिसि सपने पिय देखति उमंगी सी । भूलि बैखरी मृग सावक ज्यों निज दल तजि कहुँ दूरि भगी सी । करति न लाज हाट-वारन की कुल-मर्यादा जाति डगी सी । 'हरीचंद' ऐसे हि उरमी तो क्यों नहिं डोलत संग लगी सी ।५६ श्री गोपीजन-बल्लभ सिर पै बिराजमान अब तोहि कहा डर मूढ मन बावरे । छोड़िकै कुसंग सबै आसरो अनेक अबै छिन भर हरि-पद सीस नित नाव रे । कहत पुकार बार बार सुनि यह राम क्रोध छोड़ि एक हरि गुन गाव रे । 'हरीचंद' मटकै अनेक ठौर तिन प्रति जग बौराना मेरे लेखे । कोइ असाध कोई साधू बनि धाया करि करि भेखे । लड़ि लड़ि मरा बाद बादन में बिनु अपने चख देखे । धरम करम कर मोटी कीनी और करम की रेखे । होय सयाना मूल गवाया सभी व्याज के लेखे । 'हरीचंद' पागल बनि पाया पीतम प्रीति परेखे ।६३ हरि जू कों नेह परम फल माई । मेरे नेम धरम जप संजम बिधि याही में आई । यहै लोक परलोक चार फल यहै जगत ठकुराई । मेरे काम धाम परमारथ स्वारथ यहै सदाई । यह वेद बिधि लाज रीति धन हमरे यहै बड़ाई । 'हरीचंद' बल्लभ की सरबस मैं जिय निधि कर पाई।६४ मुसाफिर चेत करो निसि बीत गई चौजाम । भारतेन्दु समग्न २६८