पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३१५

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मुर्की’ हुए ला-मका के जाकर । अब खुले पर भा तो मैं वाकिफ नहीं परवाज १२ से ।। हम अपने को उनकी तेग खाकर कत्र में राहत से सोए थे न था महशर का खौफ। मिटा मिटाकर बना चुके हैं। बाज़ आए ए मसीहा हम तेरे ऐजाज़ से । यही है अदना सी इक अदा से वाए गफलत भी नहीं होती कि दम भर चैन हो । जिन्होंने बरहम है की खुदाई । चौंक पड़ता हूँ शिकस्त ! होश की आवाज़ से । यही हैं अकसर कज़ा के जिनसे नाजे माशूकाना से खाली नहीं है कोई बात । फरिश्ते भी ज़क उठा चुके हैं। मेरे लाशे को उठाए हैं व किस अन्दाज से । य कहदो बस मौत से हो रुखसत कन्न में सोए हैं महशर का नहीं खटका 'रसा' । क्यों नाहक आई है उसकी शामत । चौंकनेवाले हैं कब हम सूर १४ की आवाज़ से ।१७ कि दर तलक वह मसीहे खसलत चाह जिसकी थी वही यूसुफे सानी निकला ।१८ मेरी अयादत को आ चुके हैं। बख्न १५ ने फिर मुझे इस साल दिखाई होली । जो बात माने तो ऐन शफकत सोजे फुरकत जेबस मुझको न भाई होली । न माने तो एन हुस्ने खूबी । शोए इश्क भड़कता है तो कहता हूँ 'रसा । 'रसा' भला हमको दखल क्या अब दिल जलाने के लिए आह यह आई होली ।१९ हम अपनी हालत सुना चुके हैं ।१५ बुते काफिर जो तू मुझसे खफा है । दश्त-पैमाई का गर कस्द मुकर्रर होगा। नहीं कुछ ख़ौफ़ मेरा भी खुदा है। हर सरे खार पए आबिला५ नश्तर होगा । यह दर परद : सितारों की सदा है। मैकदे से तेरा दीवाना जो बाहर होगा । गली कूच : में गर कहिए बजा है एक में शीशा और इक हाथ में सागर होगा। रकीबों १६ में वह होंगे सुर्खरू आज । हलकए चश्मे सनम लिख के य कहता है कलम । हमारे कत्ल का बीड़ा लिया है। बस कि मरकज़ से कदम अपना न बाहर होगा। यही है तार उस मुतरिब १७ का हर रोज । दिल न देना कभी इन संग-दिलों को यारो । नया इक राग लाकर छेड़ता है। चूर होवेगा जो शीशा तहे पत्थर होगा । बुवद मानिंद दीद: । १८ देख लेना व अगर रुख की तबल्ली तेरे। तुझे देखा है हरों को सुना 1 आइना खानए मायूसी ७ मे शशदर होगा । पहुँचता हूँ जो मैं हर रोज़ जाकर । चाक कर डालूंगा दामाने कफन वहशत से। तो कहते है गज़ब तू भी 'रसा' है ।२० आस्ती से न मेरा हाथ जो बाहर होगा । ऐ 'रसा' जैसा है बर-गशता ज़माना हमसे । रहमत का तेरे उम्मीदवार आया हूँ। ऐसा बरगश्ता किसी का न मुकवर १० होगा ।१६ मुंह द्वापे कफन में शर्मशार ९ आया हूं। नींद आती ही नहीं धड़के की बस आवाज़ से । आने न दिया बारे २० गुनह ने पैदल । तंग आया हूँ मैं इस पुरसोज ११ दिल के साज़ से । ताबूत २१ में कांधों पै सवार आया हूँ।२१ दिल पिसा जाता है उनकी चाल के अन्दाज़ से । चंपई गरचे दुपट्टा है तो गुलदार है बेल । हाथ में दामन लिए आते हैं वह किस नाज़ से । सैरे गुलशन को चले आते है गुलशन होकर ।२२ सैकड़ों मुरदे जिलाए हो मसीहा नाज़ से । कलक की ग़ज़ल 'बाद अज़ फना तो रहने दे इस मौत शरमिंदा हुई क्या क्या तेरे ऐजाज १२ से । खाकसार को' पर चार शेर कहे हैं बागबाँ कुचे कफस में मुखतों से हूँ असीर । अल्ला रे लुल्फे जबह की कहता हुँ बार बार । 1 शुनीद : कै १. अस्तित्व, संसार, २. गृहवाला, ३. बिना गृह का, ४. व्यस्त, ५. पराजय, ६. फफोला, ७. प्रकाश, ८. नैराश्य, ९. चकित, १०. फिरा हुआ, ११. भाग्य, १२. जलन से भरा । १३. अद्भुत कार्य. १४. उड़ान, १५. प्रलय के समय बजने वाला नरसिंहा बाजा, १६. भाग्य, १७. प्रतिद्वंद्वी, १८. गायक, ११. सुना हुआ क्या देखे हुए के समान हो सकता है, २०. लज्जित, २१. बोझ । स्फुट कविताएँ २७३