पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३३२

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सुलो. बचावै । -सोई तो मैं घबड़ाती हूँ कि यह कौन है । ने अंचल से मुख क्यों छिपा लिया ? और कहा ये आया है. अब मैं चोर २ कह कर पुकारती सुलो. (हंस कर) आप बड़े सुरसिक और हं जिसमें सब चौकीदार लोग दौड़कर हम लोगों को पंडित हैं इस से मैं आप की बात का उत्तर नहीं दे सकती. "दीपक की राव के उदय बात न पूंछे कोय" वि.-- (हाथ से पुकारने का निषेध कर के धीरे पर हां जो लज्जा न करती तो हमारी सखी कुछ उत्तर से) नहीं २ मैं समझती हूं कि यह चोर नहीं है. मेरा देती । चितचोर है कोई जाकर उस से पूछो। सुं.- (हंसकर) तो आज तुम्हारी राजकन्या हम से हार गई। चप.- भला देखो मेरी छाती कैसे धड़कती है । सुलो.- क्यों हार क्यों गई ? इससे मैं तो नहीं पूछने की (सुलोचना से) सुलोचना तू सुं.- और हारने के माथे क्या सींग होती है ? जाकर पूछ आ यह कौन है। मुझे देख कर लाज के मारे वह कुछ उत्तर नहीं दे सुलो. (सुन्दर से) तुम कौन हो और बिराने सकती इसी से हार गई। घर में क्यों घुस आये हो सच बतलाओ क्योंकि हम सुलो. (हंस कर) आप को सब कहना शोभा लोगों का डर से कलेजा कांपता है. इस से कहो कि तुम देता है। देवता हो. या दानव हो या मनुष्य हो ? वि.- (सखी से) सुलोचने, तुझे कुछ उत्तर देने सु.-(मुसुका कर) नहीं सखी. डरने का क्या नहीं आता, तू क्यों नहीं कहती कि हमारी विद्यावती ने काम है ? न मैं देवता हूं. न दानव, मैं तो साधारण विद्या के विचार का प्रण किया था, कुछ चोरी विद्या के मनुष्य हूं और कांचीपुर के महाराज गुणसिन्धु का पुत्र | विचार का प्राण नहीं किया था, आप से न देकर घुस हूं. और मेरा नाम सुन्दर है, भाट के मुख से तुम्हारी | आये और अब बातें बनाते हैं । राजकन्या के विचार का समाचार सुन के यहां आया हु सुं.. .- (हंस के) हां इस देश के विचार की चाल परन्तु विचार तो दूर रहै तुम्हारी सभा में अविचार बहुत | ही यही है और उलटे हमी चोर बनाये जाते हैं, मैंने क्या अपराध किया था कि उस दिन वृक्ष के नीचे घंटों चप. (धीरे से) सखी यह तो वही है। खड़ा किया गया और तुम्हारी राजकुमारी ने हमारा तन सुलो. - क्यों हमारी सभा में अविचार कौन सा मन धन सब लूट लिया । अब कहो पहिले चोरी का आरंभ किसने किया, वही बात हुई कि 'उलटा चोर सुं.- और विचार किस को कहते हैं ? जो कोई | कोतवाल को डाडै' । परदेशी तिथि आवे तो न तो उसका आदर होता है वि.-और सुनो! यह चोर नहीं है बड़े साधू और न कोई उसे बैठने को कहता है | है । सच है साधू न होते तो सेन देने की विद्या कहां (विद्या संकेत से चपला से बैठाने को कहती है और | सीखते ! यह कर्म साधुओं ही के तो हैं - सखियो ! सुन्दर बैठता है, और विद्या लज्जा से वस्त्र से अपना आज तुमने बड़े महात्मा का दर्शन किया निश्चय तुम्हारे सब शरीर ढांक लेती है। सब पाप कट क्योंकि शंख बजानेवाले साधू तो सुं.- (सुलोचना से) सखी विद्यावती के गुण की | बहुत देखे थे पर सेन लगानेवाले आज ही देखने में मैं जैसी प्रशंसा सुनी थी उस से भी अधिक आश्चर्य गुण | आये। देखने में आये 1 सुं.- (हस कर) इसमें क्या सन्देह है, सुलो. -ऐसे आप ने कोन आश्चर्य गुण देखे ? सखियो ! तुम परीक्षा कर लो कि हम में सब साधुओं सुं. जाल में चन्द्रमा को फसाना, बिजली को | के लक्षण है कि नहीं ? देखो मैं अपने चोर को ढूंढ़ता २ मेघ्र में छिपाना. और वस्त्र से कमल की सुगघि को | यहां तक आया और उसे पाकर उस को पकड़ने और मिटाना. यह सब बात तुम्हारी राजकन्या कर सकती धन फेर लेने के बदले और भी जो कुछ मेरे पास बच गया है भेंट किया चाहता है. परन्तु जो यह लें। सुलो.- (हंस कर) यह आप कैसी बातें कहते वि.-(धीरे से) दीजिये। हैं, क्या ये बातें हो सकती हैं। -(प्रसन्न होकर) सखियो तुम साक्षी सुं. जो नहीं हो सकतीं तो तुम्हारी राजकन्या | रहना, मन और प्रण तो इन्होंने चोरी कर के ले लिए, 1 भारतेन्दु समग्र २९०