पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३३३

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HOM पावै। करना चाहिए। 'एक देह बच गई है इसे मैं अपनी ओर से अर्पण करता | बैछता है और विद्या कटाक्ष से देखती है)। हूँ (विद्या से) प्यारी, मैं यह केवल इसी हेतु आया था तो सुलोचना- (हंस केर) सखी, सब बाते हो तुम ने मुझे अपना कर लिया, अब इसका निबाह | चुकी तो अब गान्धर्व विवाह की कुछ रीते बची क्यों करना. (हाथ बढ़ाता है) | जाती हैं और हमारी आज्ञा करने में तुझे क्या लज्जा है, वि.- (लाज से) यह मैंने कब कहा था ? अब तुम दोनों माला का अदला बदला करो जिसे देख सुलो. (विद्या से हंस कर) सखी, अब तेरी ये कर हम सुखी हों। बातें न चलेंगी आज के विचार में तो तू हार गई। (सुंदर के यत्न से दोनों परस्पर माला बदलते हैं और च.- इसमें क्या संदेह है, यहां के न्याय के | सखी लोग आनन्द ले ताली बजाती हैं)। विचार का क्या काम है जो रस के विचार में जीते सो विद्या- (मन ही मन) विधाता क्या सचमुच जीता क्योंकि न्याय का विचार कर के स्त्री को जीतना आज ऐसा दिन हुआ है, या कि मैं सपना देखती यह भी एक अविचार है। हूँ -नहीं यह सपना है । सुलो.- (हंस कर विद्या से) सखी अब विलंब च.- हमारे नेत्र आज सुफल हुए । क्यों करती है क्योंकि राजपुत्र तुझे अपना शरीर सुलो. --(आनन्द से गाती है)। समर्पण कर के पाणिग्रहण के हेतु हाथ फैलाए हुए हैं | आजु अति मोहि अनन्द भयो । इससे या तो तुम उसकी बनो या उसे अपना करो | बहुत दिवस की इच्छा पूजी सब दुख दूर गयो ।। क्योंकि आज से हम उसमें और तुझ में कुछ भेद नहीं यह सोहाग की राति रसीली सब मिलि मंगल गाओ । समझती और हस्तकमल के संग अपना हृदयकमल भी | जनम लिये को आज मिल्यो फल अंखिया निरखि सिराओ राजपुत्र के अर्पण करो क्योंकि अच्छे काम में विलम्बन | दिन दिन प्रेम बढ़ो दोउन को सब अति ही सुख चिरजीवो दुलहा अरु दुलहिन दोउ कर जोरि मनावै ।। .-(प्रसन्नता से विद्या का हाथ अपने हाथ में सुन्दर.- आहाहा कैसा मधुर गीत है, सखी जो लेकर) अहाहा ऐसा भी कोई दिन होगा। तुझे कष्ट न हो तो एक गीत और गा । सुलो.. .- अब होने में बिलम्ब क्या है ? परन्तु सुलो.- वाह ऐसे आनन्द के समय में और मैं मैं यह विनती करती हूं कि हमारी राजकुमारी अत्यन्त | गीत न गाऊ. उस में नये जमाई की पहिली आज्ञा न सीधी और सच्ची हैं क्योंकि इसने पहिले ही जान | माननी तो सर्वथा अनुचित है। पहिचान में आपका विश्वास करके अपना तन मन धन च.-सखी हमारी राजनन्दिनी ने उस दिन जो आप के अर्पण किया परन्तु आप सुरसिक और पण्डित | गीत बनाई थी सो क्यों नहीं गाती ? क्योंकि नये बर से इस धन की रक्षा का कोई उपाय कीजिये | उस गीत से निश्चय बड़े प्रसन्न होंगे। (फूल की माला से दोनों का हाथ बांधती हैं) हम | (विद्या आंखों से निषेध करती है) भगवन से प्रार्थन करती हैं कि तुम दोनों सर्वदा फूल की सुलो.

- हा सखी बहुत ठीक कहा (विद्या से)

माला की भांति आपुस में प्रेम के डोरे में बंधे रहो । क्यों सखी इसमें दोष क्या है तू क्यों निषेध करती है .-सखी, हम भी हृदय से मैं निश्चय वही गीत गाऊंगी। (चपला ताल एवमस्तु हैं। देती है और सुलोचना गाती है ।) च.- राजनन्दिनी तो इस समय कुछ कहने ही (राग देस) की नहीं पर मैं उसकी ओर से कहती हूं कि ऐसा ही जहां पिय तहीं सबै सुख साज । बिनु पिय जीवन व्यर्थ सखी री यद्यपि सबै समाज । सुलो.- ऐसी नई बहू की प्रतिनिधि कौन नहीं | जो अपुनो पीतम संग नाही सुरपुर कौने काज ।। होना चाहती? निरजन बनहू मैं पीतम के संग सुरपुर को राज ।।१।। चल तुझे तो ऐसी ही बातें सूझती हैं । सुं.- वाह २ बहुत अच्छी गीत गाया, जैसे मेरे सुलो. - अब नये दुलहे दुलहिन को दूर २ कान में अमृता की धारा की वर्षा हुई. सखी सुरपुर सुख बैठना उचित नहीं है, इस से कृपा कर के दोनों एक | आज मुझे यथार्थ अनुभव होता है। पास बैठो जिसे देख कर हमारी आंखें सुखी हों । सुलो. (हंस कर) क्या मेरे गाने से ! जो होय सुन्दर- (हंस कर के) ठीक है (विद्या के पास | अब रात बहुत गई और नई बहू के मिलाप में पहिले ही। 9 कहते अब हो। विद्यासुंदर २९१