पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३३८

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दूसरा गांक च.- चल । ही.मा.- विम.-सोई तो, अहा जैसे चन्द्रमा को राहु ग्रसे सब साधू हो, देखो कोतवाल हम तो कुछ नहीं करती हा -विधाता बड़ा कपटी है। और तुम सब हमारी प्रतिष्ठा बिगाड़ते हो । च. धू. के.- (हंस कर) हां हां ! मैं तेरी सब सखी, अब और कुछ मत कह क्योंकि प्रतिष्ठा समझता हूँ, पर यहां इस से क्या ? सब लोग | इस कथा के सुनने से मेरी छाती फटी जाती है और महाराज के पास चलें जो वह चाहेंगे सो करेंगे ? राजकन्या का दुख स्मरण कर के मुझसे यहां खड़ा नहीं ही. मा.- अरे कोतवाल बाबा इस बुढ़िया को रहा जाता, देखें और क्या २ होता है ? विम. क्यों पकड़े लिये जाते ही बुढ़िया के मारने से क्या लाभ तो फिर कब मिलेगी? च. होगा, मुझे अपने बाप की सौगन्द जो मैं जानती जो जीती रहूंगी तो शीघ्रही मिलूंगी (दोनों हूँ-भगवान साक्षी है कि मैं किसी पाप में रही हूँ। जाती हैं। (जवनिका गिरती है।) सु.-मौसी इतनी शीघ्रता क्यों करती है ? सब लोग महाराज के पास चलते हैं जो महाराज उचित समझेगे सो करेंगे? ही. मा.- (क्रोध से) अरे दुष्ट तेरी मौसी कौन है ? इसी के पीछे तो हमारा सब कुछ नाश हुआ, अब (विद्या शोच में बैठी है) तेरा होमकुंड क्या हुआ और तेरे इष्ट देवता कहां गए ! अरे तू बड़ा जालिया है और तूने मुझे बड़ा धोखा दिया, चपला और सुलोचना आती हैं। अब मैं आज पीछे अपने घर में किसी परदेसी को न च.-(धीरे से) सखी, मुझसे तो दु:ख की उतारूंगी। कथा न कही जायगी तूही आगे चलकर कह । धू. के.- अब भले ही न उतारना, पर इस सुलो. - तो तुम मत कहना पर संग चलने में क्या दोष है जो विपत्ति आती है सो भोगनी पड़ती है 1 उतारने का फल तो भुगतना ही पड़ेगा। (रोती है) हाय में हाथ जोड़ के कहती (दोनों विद्या के पास जाती हैं) हूं कि मैं इस विषय में कुछ नहीं जानती, दोहाई वि.- (घबड़ाकर) कहो सखी कहो क्या भगवान की मैं कुछ नहीं जानती (कोतवाल से) अरे समाचार लाई हो? बेटा! तुम्हारे मां बाप मुझे बड़े प्यार से रखते थे, सो सुलो. - सखी क्या कहूं कुछ कहा नहीं जाता, तुम अपने मां बाप के पुण्य पर मुझे छोड़ दो और इसने जैसा कर्म किया है वैसा दण्ड दो । दोहाई कोतवाल की मेरे मुख से ऐसे दुख की बात नहीं निकलती । मैं बिना अपराध मारी जाती हूं। हाय - हम इसी दुख देखने को जीती है - सखी जिस प्रीतम के सुख से तू सुखी रहती थी वह आज धू. के. -इस से क्या होता ! अब तुम दोनों को महाराज के पास ले चलते हैं और उन की आज्ञा से पकड़ा गया - हाय उस के दोनों कोमल हाथों को निरदई कोतवाल ने बांध रक्खा है - हाय - उस एक संग ही बंदीगृह में छोड़ देंगे (सुन्दर का हाथ की यह दशा देखकर मेरी छाती क्यों नहीं फट गई। पकड़कर कोतवाल जाता है और हीरा को खींच करा चौकीदार लोग ले जाते हैं) वि.- (घबड़ा कर) अरे सच ही ऐसा हुआ - विम.- अब सचमुच चोर पकड़ा गया । हाय फिर क्या हुआ होगा (माथे पर हाथ मार कर) हा विधाता तेरे मन में यही थी जो आंख से देखती है उस का पूछना और फिर उठ कर) हाय -प्राणनाथ बन्धन में पड़े हैं क्या? और मैं जीती हूं-हाय । विम.- पर भाई ऐसा रूप तो न आँखों देखा धिक है वह देह औ गेह सखी और न कानों सुना, यह तो राजकन्या के योग्य ही है इस जिहि के बस नेह को ट्टनो है। में उसने अनुचित क्या किया, क्योंकि जैसी सुन्दर वह उन प्रान पियारे बिना यह जीवहि है वैसाही यह भी है, "उत्तम को उत्तम मिले मिलै नीच राखि कहा सुख लूटनो है ।। को नीच"। हरिचन्द जू बात ठनी जिय मैं च. पर उस निर्दयी विधाता से तो सही नहीं नित की कलकानि ते छुटनो है। गई। तजि और उपाय अनेक सखी (मूर्छा खाती है भारतेन्दु समग्र २९६