पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३४२

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रत्नावली नाटिका संस्कृत से अनूदित इस नाटिका के प्रस्तावना और विषकम्भक का ही अनुवाद मिलता है। भारतेन्दु ने इसकी भूमिका वैशाख कृ.सं. १९२५ को लिखी थी इसके किसी पत्रिका में छपने या इसकी किसी पुरानी प्रति का पता नहीं। रत्नावली का एक और अनुवाद बरेली के किन्हीं पं.देवदत्त जी का भी मिलता है।- सं. भूमिका हिन्दी भाषा में जो सब भांति की पुस्तकें बनने के योग्य हैं अभी वे बहुत कम बनी है विशेष कर के नाटक तो (कुंवर लक्ष्मणसिंह के शकुन्तला के सिवाय) कोई भी ऐसे नहीं बने हैं जिन को पढ़ के कुछ चित्त को आनन्द और इस भाषा का बल प्रगट हो; इस वास्ते मेरी इच्छा है कि चार नाटकों का तर्जुमा हिन्दी में हो जाय तो मेरा मनोरथ सिद्ध हो। शकुन्तला के सिवाय और सब नाटकों में रत्नावली नाटिका बहुत अच्छी और पढ़नेवालों को आनन्द देनेवाली है इस हेतु से मैंने पहिले इसी नाटिका का तर्जुमा किया है और जो ईश्वरेच्छा अनुकूल है और आप गुणा हकों की अनुग्रहदृष्टि है तो धीरे धीरे कुछ नाटकों का | तर्जुमा होकर प्रकाशित होता जायर । इस नाटिका में मुल संस्कृत में जहां छन्द थे वहाँ मैंने भी छन्द किये हैं यदि संस्कृत के छन्दों से इसके छन्दों को मिला के. पढ़ि तो इसका परिश्रम प्रकट होगा। मुझे इसके उल्था करने में श्री "डित शीतलाप्रसाद से बहुत सहायता मिली है। और निश्चया कि इस का उल्था अगर कोई अच्छी हिन्दी जानने वाला करता तो रचना | अति उत्तम होतो इस से मुझे आप लोगों से आशा है कि इसके भूल चूक को सुधारेंगे और मुझे अपने एक दास की नाई सदा स्मरण करेंगे। हरिश्चन्द्र बनारस। मि, वैशाख २सं. १९२५ । श्रीकृष्णाय नम: श्रीराधिकायै नमः विश्लिष्यन् कुसुमाञ्जलिगिरिजया क्षिप्तो न्तरे पातु वः ।। पार्वती शिवजी के पूजन के समय उन के मस्तक पर रत्नावली पुष्पांजली चढ़ाने के लिये कई बार चरण के अंगूठों के बल से ऊँची हुई और स्तनों के भार से फिर नीची हो रंगभूमि में नाम्दी (मंगलाचरण) पढ़ता | गई । परन्तु जब शिवजी इन की ओर तीनों नेत्रों से बड़े अभिलाष से देखने लगे तो इन को बड़ी लज्जा हुई और रोम खड़े हो गए और अंग में पसीना और कंप होने पादारस्थितया मुहु स्तनभरेणानीतया नम्रता । लगा और हाथ न सम्हल सका तो इन्होंने उस शम्भो :सस्पृहलोचनत्रयपथं यान्त्या तदाराधने ।। पुष्पांजली को बीच ही में छोड़ दिया । ऐसी पुष्पाञ्जली हीमत्या शिरसीहित : सपुलकस्वेदोद्गमोत्कम्पया । तुम्हारी रक्षा करें । नांदी। भारतेन्दु समग्र ३००