पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

।।पाखंड विडम्बन ।। शा.-सखी जब दैव फिर जाता है तो क्या क्या नहीं होता, देख ।।शान्ति और करुणा आती हैं ।। | श्री रघुनाथ की प्रान पिया मिथिलेस लली दस सीस चही है। शा.- (शोच से) मेरी प्यारी मां कहां है जल्दी मुझे अपना मुखड़ा दिखा । हा! वेद चुराय के दानव के गन भागे पताल न जाय कही है।। जो बन मैं सरितान के तीर जहां बहे सीतल पौन सुहाई ।। | वाम मदालसा जो सुरलोक की सो छलकै खल दैत लही है। देवन के घर मैं ऋषि के घर मैं जो विधि बाम भयो सजनी तब जिन आपुनी आयु बिताई ।। जो जो करै सो अचर्ज नहीं है ।। सज्जन के चित में जो रही हिय में तो चल अब पाखण्डही के जिन पुन्य की वेलि बढ़ाई । सो परी जाय पखडिन के कर गाय घर में चल के खोज करें ।। ज्यौं बाधि कै राखै कसाई ।। करु.- ठीक है चल ।। (दोनों घूमती हैं) अब मैं जी के क्या करूंगी क्योंकि - (डर) सखी मुझे जल्दी बचा ।। मम देखे बिन न्हाय नहिं नहिं पिवै नहिं खाय । शां.- हैं ! क्या कोई राच्छस है। मो बिन प्रान न रखिहै प्यारी श्रद्धा माय ।। करू.-देख इधर देख यह सरीर में कीचड़ लगा ह्य ! तो अब सरधा माता के बिना जीना तो दु:सही भोग कर अपने को मैला कुचैला बनाए नोचे खसोट बाल करना है । सखी करुणा तू मेरा सोच मत करियो मैं नंगा घिड़गा, खोड़े मैले दांत भोड़ी भ्यावनी सूरत शीघ्र ही आग में जल के अपनी मां के पास पहुंचुंगी । राच्छस की मूरत हाथ में झाडूसा एक मोरछल लिए (रोती है) इधर चला आता है ।। शा.-सखी यह राक्षस नहीं है क्योंकि ऐसा करु.- (शोच से) सखी यह क्या करती है तेरा | बलवान नहीं जान पड़ता। यह दु:ख मुझ से सहा नहीं जाता, तू ऐसी बातें कह करु.-तो सखी फिर यह कौन है? कर मुझे क्यों अधमरी किए देती है सखी धीरज धर शा.-सखी हो नो हो वह पिशाच है । और प्रान मत दे तब तक मैं उस को तीरथों में, गंगाजी सखी दिन में पिशाच की गम कहाँ ? के किनारों पर सूने बनों में, मुनी लोगों की कुटियों में और देवता के मन्दिरों में ढ़ती हूं ऐसा न हो कि वह शा.- तो कोई नरक से तुरत का ढकेला पापी महाराज महामोह के डर से कहीं छिप रही हो । होगा। (पास से देखकर और जान कर) अरे जाना यह तो महाराज महा मोह का भेजा दिगंबर शा.-सखी अकारथ क्यों खोज करती है। सिद्धान्त है तो इससे दूरही रहना चाहिये (मुंह फेरती है) क्योंकि, करु.-सखी एक दो घड़ी यहीं ठहर तो सरधा कूल मैं छाइ रहे है सिवार को खोजै ।। घिरे हैं विखानस के समुदाई । (दोनों किनारे खड़ी हो जाती हैं) त्यौं घर ब्राह्मण के चरु सों (ऊपर कहे हुए मेस से दिगम्बर सिद्धान्त आता है) कुश सों समिधान सो राखे छिपाई ।। दिग.-नमो अर्हन्त नमो अर्हन्त ।। नवद्वारारोदेह धरतिसमा आतम दीप । चारहूआश्रम के इमि मूढ़न कामना की बहु बेलि बढ़ाई । जिनबररो सिद्धान्त यह देसी मोच्छ समीप ।। बातहूनाहि कहूँ सुनिए कित श्रद्धा गई कछु जान न बाई । अरे सुणौरे सरावगियो सुणौ : अरे, करु.-सखी ऐसा कभी नहीं हो सकता क्योंकि रे रे प्रावक सुनो! वह तो सतोगुनी श्रद्धा है उस्की ऐसी दुरगत तो सपने में | यामल रूपी देह मांकसी जलारी सुद्धि । भी नहीं हो सकती। आतम त्रिमल स्वभावछै यह रिषिआरी बुद्धि ।। 4 47 भारतेन्दु समग्र ३०४