पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३४८

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हम तेएनाहऐले ।। लाइ के पारन के हित मद्यभरे ।। दिगं.- अरे दासियों के दास ! यह तो मैंने एक अस काटिके कंठ कठोर तुरतके दृष्यंत दियो और अब तेरे हित की कह सुन बुद्ध रक्तन कुम भराइ घरे। को परम छोड़ि और बहन्त को धम्म ले। ममदेवता मैरव नाथ बू है मि. तो पापी आप नाच ओ कल छलों को जिन्हें पूजन लोग अनेक तरे वी नाश कहताए । भिक्षु.- दोनों कान मूद कर) बुद्ध युद्ध अले (हि) छोड़िसरे परवार को करिनिदित के कर्म । बला कचिन घलम्मए भयो पिशाच समान तू लो जैनिन के धर्म ।। दिवं.-अहन्त २ अरे कोक बड़े पापी ठगियाने औल बी जैन पलाम को छलशगता तैने केछे जानी। य विचाराक ठगलियोछे ।। दिगं.-रे ग्रहनक्षत्र चन्द्र सूर्य ग्रहनके ज्ञान फापा.- (क्रोध से) क्वारे पाप पखड़ियों से के संवाद का देखशही सू भगवान अरहंत री सर्वज्ञता नीच. मुड़ मुड़े, नोचे खसोटे अरे चौदहो भुवन के स्वामी प्रगट्यायछै ।। स्थिति उत्पत्ति प्रलय पालन करने वाले वेदान्त बेच मि.- (हसकर) अले जोतिछ छाछतत तो भगवान् भवानीनाथ का मत ठगों का है क्योरे अरे सुन अनादिऐ न जाने किष्ट ने तुमलोजेको धोखा दे कल इछ | इस मत की महिना धनम्मे लखहे | हरिहर आदिक देष गनन को आधि मंगाउ । (डि) हे जितनो बड़ो देह को पिडक जीवन तसइ नभ पथ में नक्षत्रन की गतिरोकि पिराळ।। रुपहि धारिहे । तासो नजानिह और कछ निजदेहही परवत नदी समुद्र नगर नर सह यह धरनी । की सब बात सम्हारिहै । जोशी नहीं गति दूसरे लोक में | एक प्याले में घोरिपिक' यह सुनि मम करनी ।। सो किमि बात कईशो विचारिहे । कभके भीतर दोप दिगं - अरे कपलिला सोई तो कई छ कै काहू टेक्यो सो न बाहर क्योडू प्रज्ञाया पसारिहे ।। इन्द्रजाल पारने तोकू इंद्रजाल दिखाइ के भरमाइ दियो इधरे दोनों लोज-क्लिद जैनमत हे छगत भगवा है। नहीं का मत अच्छाए इठमों इंदन कुछ नइऐ ।। फापा.- अरे पाणी फिर भी भगवान पर शा.- सखी चल उधर चझे। इन्द्रजाल वाले का आक्षेप करता है ? तो अब इसका कस.-चज सखी। पमंड दूर करना चाहिए (खग खींच कर) तो क्षत्र में (दोनों घूमती है) अहो खाँचके खंग की तीक्ष्ण धारै। शा.- सखी देख वह सामने सोमसिद्धान्त जाता गरी काटिके दुष्टको मारि डारे ।। है तो चल इसके पोहेचते।। झाग्चों फेन ताजो लहू यासु लेहों (यपालिक का रूप धारण किये सोमसिद्धांत आता है) पापा.- (घूमकर) काये हो भवानी मवे तृप्ति देहों ।। (खंग लेकर दौड़ता है) डाइको कंठ में चास माला घरे । विर्ग.- (डर से) महाभाग 'अहिंसा परमो | देखते जोगकी दृष्ट मझार से धर्म: ॥ एक श्री संभु से भिन्न संसार से ।। दिर्ग-रे यह (भिक्षुक की गोद में छिपता है) यह पुरुष कापालिक व्रत धारेहै मि.- (कापालिक को निवारण करके) मलालाज तौयासू होहू कछ पूछ' (पास जाकर) घोल रे बोल महालाज हंछी की बकवाद में इस तपच्छोको अध अरे । चाड़ और मूढ़ को कंठ माला | उचित नईऐ ।। परे ।। कोनसो धर्म रे कौनसो धम्म है । मोदा जामें (कापा :सग मियान में रखता है। मिले सो कसोकर्म है। दिगं.- (फिर उठ कर) जो महाराज रो क्रोध कापा.-अरे उपनक सुन जो हम लोगों का शान्त मयो होय तो हों कछु पछिको इच्छा कहं हूँ ।। कापा.- पूछ क्या पूछता है ! नित सीस के काटे लहसों मरे दिगं.-आप को घरम्म तो सुन्यौ पर मोक्ष को चरवो लगे मासको होमकरें। सुख कशो होयछ। पुनि खोपड़ी वामन जात की कापा.- सुन । भारतेन्दु समग्र ३०६ OX काफलिका