पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३५०

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दिगं. - अरे भिक्षुक सब आपही आप मत पीजा कापा.- अरे यह क्या पूछता है देख । कपालिनीरी जूठी मीठी मदिरा थोड़ी म्हारे कू बी तो | सुर मुनि विद्याधर की नारी । छोड़। यक्षरक्ष किन्नर की प्यारी ।। (भि : दिगम्बर को बोतल देता है) स्वर्ग भूमि पाताल छिपाई । भौगैं सब विद्या बल लाई ।। दिगं. (पीकर) अहाहा वाह रे या मदिराकी मिठास वाह रे स्वाद वाह रे सुगंध वाह रे मादकता अरे दिगं.- (कुछ उंगलियों पर गिनकर) सुणौ मैं तो अहंत के मतमे रहयौ सो ऐसी मदिरा दिना बहुत सुणौ अरे हमने गनित सूंजान्यो के हम सब महा मोह के किंकर हैं। ही ठग्यो गयोरे अरे भिक्षुक मेरोतो माथो घूमै छै तासो हूं तो सोऊँगो ।। दोनो.- (स्वर्ण आनानाट्य करके) ठीक है मि. •- बहुत थीकऐ (दोनों लेटते हैं) आपने बहुत ठीक समझा है । कापा.- प्यारी यह आज बिना मोल के दो दास दिगं. तो अब राजा को कछु काम करो । मिलेहैं तो उठ इस आनंद में हमलोग नृत्य करें (दोनों कापां.- वह क्या । नाचते हैं) दिगं. .-धर्म री बेटी अदा कू पकड़ कै म्हाराज दिगं.- अरे भिक्षुक यह कापालिक अरे हौं रे पास ले चलो ।। मूल्यौ आचारज कापालिनी के संग नाच रहयौ छै तो कापा.- बोल वह दासी की पुत्री कहां है अभी हमदोऊ क्यौन नाचें ।। उस्को विद्या के बल से खींच मंगाता हूँ। मि.-थीकऐ (दोनों नाचते हैं) दिगं.- (खड़ी लेकर गणित करता है) दि. ("अरे सुण पीणापयोधर वारी शा.- सखी देख यह सब माता की बात करते है इस्से कान लगा कर सुनना चाहिए । यह गाता है और गिरता २ नृत्य करता है) मि. करु.- सखी ठीक है (दोनों सुनती है) आचालज! इछ मतसे यह आचलज ऐ कि बिना पलिछलमही छव छिद्धिमिलतीये ।। दिगं.- (विचारकर) नहिं जल थल पाताल मैं, गिरवर हूं मैं नाहिं । कापा- अरे तूने इस्मे आश्चर्य क्या समझा ।। जाहि विलोकौंबनै सोई सिद्ध धरूं कृश्न भक्ति के संग वह, बसत साधु चित माहिं ।। निज चित्त जो सोई करौं ।। कछ- सखी बधाई है ! सुन तेरी मा अदा श्री कृश्न को भरित महारानी संग है ।। अरु काम कलान की बातें अनेक पढ़ाइ सिखाइ कै कष्ट हरौं ।। (शा: हर्ष नाट्य करती है) पुनि मोहन मारन कर्षन थंभन कापा- और कामदेव के डर से भागकर धर्म आदि अनेकन सिदिमरौं । कहां छिपा है ।। वह कौनसी कामना जोनमिले (दिगं : गिनकर "नहिं जल थल. "फिर से पढ़ता जिय यामे कछून संदेह धरौं ।। है) दिगं.- अरे कापालिक (कुछ ठहरकर) 'डे कापा- (शोच से) हा महाराज के बुरे दिन आचारज वा आचार्ज रावलजी श्री आर आए। महाराज ।। मि.- अले इछ विचाले तपछली ने कबी मद हरिभरित सबै कछु सिद्ध करै । पान तो कियाई नई था इच्छे बावला ओगयाऐ महालाज सरधा सतकन्या का दोस हरै। आप इछका मद उताल दीजिए ।। पुनि धर्महू सो कर छुटि गयो । कापा.-ठीक है (अपने जूठे पान की सीठी देता सबहू बिधि हाय अनर्थ भयो ।। जो होय प्राण रहे तक तो स्वामी का काम साधना ही दिगं.- .- (जाकर और स्वस्थ होकर) आचार्य हों है तो अब हम महाभैरवी विद्या का प्रयोग करके धर्म: 'यह पूछ के जैसी या मदिरा में आहरन सिदिछे वैसी और श्रद्धा को खींचते हैं। स्त्री पुरुष के आहरण मैं छे के नहीं ।। ।।चारों जाते हैं।। OM भारतेन्दु समग्र ३०८