पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३५३

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ह परम प्रचण्ड भुजदण्ड के बल से अनेक पाखण्ड इसी तरह पुनर्विवाह भी है इसके करने से कुछ पाप के खण्ड को खण्डन करनेवाले. नित्य एक अजापत्र के | नहीं होता और जो न करे तो पुण्य होता है । इसमें भक्षण की सामर्थ्य आप में बढ़ती जाय और अस्थि माना प्रमाण श्रीपाराशय स्मृति में - धारण करनेवाले शिवजी आप का कल्याण कर आप | "मृते भरि या नारी ब्रह्मचर्यव्रते स्थिता । बिना ऐसी पूजा और कौन करे । (आकर बैठता है) | सा नारी लभते स्वर्ग यावद्रिदिवाकरौ ।' पुगे. .-- वाह वाह ! सच है सच है। इस वचन से. और भी बहुत जगह शास्त्र में आज्ञा (नेपथ्य में) है. सो जो विधवा विवाह करती हैं उनको पाप तो नहीं पतीहीना तु या नारी पत्नीहीनस्तु न : पुमान । होता पर जो नहीं करती उनको पण्य अवश्य होता है उभाभ्या षण्डरण्डाभ्यान्न . दोषो मनरब्रवीत ।। और व्यभिचारिणी होने का जो कहो सो तो विवाह होने (सब चकित होकर) पर भी जिस को व्यभिचार करना होगा सो कर ही गी जो ऐसा मालूम होता है कि कोई पुनर्विवाह का स्थापन आप ने पूछा वह हमारे समझ में तो यों आता है परन्तु करने वाला बंगाली आता है । सच पूछिए तो स्त्री तो जो चाहे सो कर इन को तो दोष (नंगे सिर बड़ी धोती पहिने बंगाली आता है) ही नहीं है -- बंगाली अक्षर जिसके सब बे मेल, शब्द सब 'न स्त्री जारेण. दात' । 'स्त्रीमुखं त सदा चि' । बे अर्थ न छंद वृत्ति. न कुछ. ऐसे भी मंत्र जिसके मुंह | स्त्रियस्समस्ता : सकला जगत्सु। 'व्यभिचारादृतौ शुद्धः । से निकलने से सब कार्यो के सिद्ध करने वाले हैं ऐसी इनके हेतु तो कोई विधि निषेध है ही नहीं जो भवानी और उनके उपदेष्टा शिवजी इस स्वतंत्र राजा चाह करै, चाहे जितना विवाह करें, यह तो केवल का कल्याण करें। एक बखेड़ा मात्र है। (राजा दण्डवत करके बैठता है) (सब एक मख हो कर) सत्य है. वाह वे क्यों न हो राजा-क्यों जी भट्टाचार्य जी पुनर्विवाह करना यथार्थ है। चोबदार-- सन्ध्या भई महाराज ! वा नहीं। राजा-सभा समाप्त करो। बंगाली--पुनर्विवाह का करना क्या ! पुन - इति प्रथमांक विवाह अवश्य करना । सब शास्त्र की यही आज्ञा है. और पुनर्विवाह के न होने से बड़ा लोकसान होता है. धर्म का नाश होता है. ललनागन पुंश्चली हो जाती हैं जो विचार कर देखिए तो विधवागन का विवाह कर देना द्वितीय अंक स्थान पूजाघर । उनको नरक से निकाल लेना है और शास्त्र की भी आज्ञा है। (राजा. मंत्री. परोहित और उक्त भट्टाचार्य आते है। और अपने-अपने स्थान पर बैठते हैं) "नष्टे मृत्ये प्रब्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ । चोबदार--(आकर) श्रीमच्छंकराचार्य मतान- पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ।।" यायी कोई वेदांती आया है। ब्राह्मणो ब्राह्मणी गच्छेद्यती गच्छत्तपस्विनी ! राजा-आदरपूर्वक ले आओ। अस्त्रीको विधवा गच्छन्न दोषो मनुरब्रवीत ।। (विदषक आया) राजा--यह वचन कहा का है? विदूषक-- हे भगवान इस वकवादी राजा का बंगाली-- यह वचन श्रीपराशर भगवान का नित्य कल्याण हो जिससे हमारा नित्य पेट भरता है। है जो इस यग के धर्मवक्ता हैं यथा हे ब्राह्मण लोगों ! तुम्हारे मुख में सरस्वती हस सहित 'कलो पाराशरी स्मृति : वास कर और उसकी पंछ मख में न अनके । है राजा- क्यों पुरोहितजी. आप इसमें क्या परोहित, नित्य देवी के सामने मराया करो और प्रभाव कहते हैं? खाया करो। पुरो.- कितने साधारण धर्म ऐसे हैं कि (बीन में जूता फेर कर बैठ गया) जिनके न करने से कुछ पाप नहीं होता, जैसा राजा-अरे मूर्स फिर के बेट। 'मध्याह्न भोजनं कुर्यात्" तो इसमें न करने से विदु.- ब्राह्मण को मूर्त कहते हो फिर हमा (कुछ पाप नहीं है, वरन व्रत करने से पुण्य होता है नहीं जानने जो कुछ तम्हें देर मिले. हां! AER** वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ३११ !