पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३५८

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३दूत- (मंत्री की नाक पकड़कर) चल बे रहा और टके-टके पर धर्म छोड़ कर इसने मनमानी चल, राज के प्रबन्ध के दिन गये, जूती खाने के व्यवस्था दी, दक्षिणा मात्र दे दीजिए फिर जो कहिए दिन आए चल अपने किये का फल ले। उसी में पंडितजी की सम्मति है, केवल इधर उधर ४ दूत--- (गंडकीदास का कान पकड़कर कमंडलाचार करते इसका जन्म बीता और राजा के संग झोका देकर) चल रे पाखंडी चल, यहाँ लंबा टीका काम | से मांस-मद्य का भी बहुत सेवन किया. सैकड़ों जीव न आवेगा । देख वह सामने पाड़ियों का मार्ग देखने | अपने हाथ से बध कर डाले । वाले सर्प मुंह खोले बैठे हैं। यम.-- अरे यह तो बड़ा दुष्ट है, क्या हुआ (सब यमराज के सामने जाते हैं) मुझसे काम पड़ा है. यह बचा जी तो ऐसे ठीक होंगे यम.--(वैष्णव और शैव से) आप लोग यहाँ जैसा चाहिये, अब तुम मंत्री जी के चरित्र कहो । आकर मेरे पास बैठिए चित्र. महाराज, मंत्रीजी की कुछ न पूछिए । वै. और शै.-जो आज्ञा । (यमराज के पास इसने कभी स्वामी का भला नहीं किया. केवल चुटकी बैठ जाते हैं।) बजाकर हां में हां मिलाया. मुंह पर स्तुति पीछे निंदा. यम चित्रगप्त देखो तो इस राजा ने कौन अपना घर बनाने से काम स्वामी चाहे चूल्हे में पड़े, कौन कर्म किये हैं। घूस लेते जन्म बीता. मांस और मद्य के बिना इसने न चित्र. .-- (बही देखकर) महाराज. सुनिये, यह और धर्म जाने न कर्म जाने यह मंत्री की गजा जन्म से पाप में रत रहा. इसने धर्म को अधर्म व्यवस्था है. प्रजा पर कर लगाने में तो पहले सम्मति दी माना और अधर्म को धर्म माना, जो जी चाहा किया पर प्रजा के सुख का उपाय एक भी न किया । और उसकी व्यवस्था पण्डितों से ले ली. लाखों जीव यम.-भला ये श्रीगंडकीदास जी आये हैं इनका का इसने नाश किया और हजारों घड़े मदिरा के पी गया पवित्र चरित्र पढ़ो कि सुनकर कृतार्थ हों. देखने में तो पर आड़ सञ्चंदा धर्म की रखी. अहिंसा, सत्य. शौच. बडे लम्बे लम्बे तिलक दिये हैं। दया, शाति और तप आदि सच्चे धर्म इसने एक न चित्र.-महाराज, ये गुरु लोग हैं. इनके चरित्र किये. जो कुछ किया वह केवल वितंडा कर्म-जाल कुछ न पूछिए. केवल दंभार्थ इनका तिलक मुद्रा और किया जिसमें मांस भक्षण और मदिरा पीने को मिले. केवल ठगने के अर्थ इनकी पूजा. कभी भक्ति से मूर्ति और परमेश्वर-प्रीत्यर्थ इसने एक कौड़ी भी नहीं व्यय को दंडवत न किया होगा पर मंदिर में जो स्त्रियाँ आई की. जो कुछ व्यय किया सब नाम और प्रतिष्ठा पाने के उनको सर्वदा तकते रहे. महाराज. इन्होंने अनेकों को हत । कृतार्थ किया और समय तो मैं श्रीरामचंद्रजी का श्रीकृष्ण यम. प्रतिष्ठा कैसी धर्म और प्रतिष्ठा से का दास हूँ पर जब स्त्री सामने आवे तो उससे कहेंगे मैं क्या सम्बन्ध ? राम जानकी. मैं कृष्ण तम गोपी और स्त्रिया भी चित्र.-- महाराज सरि अगरज के राज्य में जो ऐसी मूर्ख कि फिर इन लोगों के पास जाती है. हा ! उन लोगों के चित्तानुसार उदारता करता है उसको महाराज, ऐसे पापी धर्मवंचकों को आप किस नरक में 'स्टार आफ इंडिया की पदवी मिलती है। यम.- अच्छा ! तो बड़ा ही नीच है, क्या हुआ (नेपथ्य में बड़ा कलकल होता है) मैं तो उपस्थित ही हूँ यम. कोई दत जाकर देखो यह क्य उपद्रव 'अंत:, छन्न पापाना शास्ता वैवस्वतो यम:' भला प हित के कर्म तो सुनाओ १द्वत-- जो आज्ञा । (बाहर जाकर फिर आता त्रि. महाराज यह शुद्ध नास्तिक है. केवल है) महाराज. संयमनीपुरी की प्रजा बड़ी दुखी है. पुकार दंभ ग यज्ञोपवीत पहने है. यह तो इसी श्लोक के करती है कि ऐसे आज कौन पापी नरक में आए हैं अनरप है -- जिनके अंग के वायु से हम लोगों का सिर घूमा जाता है अंत : शाक्ता हि:शैवा : सभामध्ये च वैष्णवा: । और अंग जलता है । इनको तो महाराज शीघ्र ही नरक नानारूपधरा कौला विचन्ति में भेजे नहीं तो हम लोगों के प्राण निकल जायंगे ।। इसने शुद्ध चित्त से ईश्वर पर कभी विश्वास नहीं यम.-- सच है. ये ऐसे ही पापी हैं. अभी मैं किया. जो-जो पक्ष राजा ने उठाये उसका समर्थन करता इनका दंड करता हूँ, कह दो घबड़ाये न । भजियेगा । महीतले ।। भारतेन्दु समग्र ३१६