पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३६१

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धनंजय विजय भूल संस्कृत में है। इसके रचयिता कांचन पंडित थे। इसका समय संदिग्ध है। लेकिन भारतेन्दु ने इसे व्यायोग में सं. १५३७ की एक हस्तलिखित प्रति का उल्लेख किया है। जिससे इसके समय की अंतिम सीमा जरूर निर्धारित होती है। यह पहिले पहल" हरिश्चंद्र मैगजीन में सन् १८७३ ई. में प्रकाशित हुआ। - सं. ॥धनंजय विजय॥ व्यायोग श्री नारायण उपाध्याय के पुत्र श्री कवि कांचन का बनाया हिंदी भाषा के रसिकों के आनन्दार्थ श्री हरिश्चन्द्र ने मूल गद्य के स्थान में गद्य और छन्द के स्थान में छन्द में अनुवाद किया बनारस मेडिकल हाल के छापेखाने में छापी गई । सन् १८७४ ई. प्यारे निश्चय इस ग्रंथ से तो तुम बड़े प्रसन्न होगे क्योंकि अच्छे लोग अपनी कीर्ति से बढ़कर अपने जन की कीर्ति से सन्तुष्ट होते हैं तो इस हेतु इस होली के आरम्भ के त्यौहार माघी पूर्णिमा में हे धनंजय और निधनंजय के मित्र' यह धनंजय विजय तुम्है समर्पित है स्वीकार करो। तुम्हारा हरिश्चन्द्र दधौ ।। धनंजय विजय विकसे कमल उदय भयो रवि को चकइनि अति अनुरागी। व्यायोग हंस हंसनी पंख हिलावत सोइ पटह सुखदाई । (नान्दी आर्शीवाद पढ़ता है) आंगन धाइ धाइ कै भवंरी गावत केलि बधाई ।। हरीली वराहस्य द्रष्ट्रादण्ड: स पातु व:। (आगे देखकर) अहा शरद रितु कैसी सुहानी है । हेमाद्रिकलशा यत्र धात्री छन्त्रश्रियं (भैरव) (वा ठुमरी) सबको सुखदाई अति मन भाई शरद सुहाई आई । सू.- (चारों ओर देखकर) वाह वाह प्रात:काल | कुजत हंस कोकिला फूले कमल सरनि सुखदादे ।। की कैसी शोभा है। सूखे पंक हरे भए तरुवर दुरे मेघ मग भूले (भैरव) अमल इन्दु तारे भए सरिता कूल कास तरु फूले ।। भोर भयो लखि काम मात श्रीरुकमिनी महलन जागी ।। निर्मल जल भयो दिसा स्वछ भई सो लखि अति अनुरागे। सूत्रधार आता है धनजय विजय ३१९