पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३६२

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पगता आइ। जानि परत हरि शरद विशोकत रतिश्रम आलस जागे।। | चा लताहि खोजत रहे मिली (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे यह चिी शिए कोन | बिना परिश्रम तिमि मिल्यो कुरुपति आपुहि पाइ ।। आता है। स.-(डर्ष से देखकर) अरे यह शामलक तो (एक मनुष्य चिट्ठी लाकर देता है) अरजुन का भेष लेकर आ पहुंचा तो अब मैं और पात्रों (सूत्रधार खोलकर पड़ता है। को भी चलकर बनाऊ । 'परम प्रसिद्ध श्री महाराज जगदेव जी (जाता है वान देन मै समर में जिन न लही कई हारि ।। इति प्रस्तावना ।। केवल जग में विमुख किय जाहि पराई नारि ।। अ.-हर्ष से) जाके लिय में तूल सो तुच्छ दोय निरधार । गोरक्षन रिपुमान बप नृप विराट को हेत । सीमे अरि को प्रवल दल रीमे कनक पहार ।। समर हेत इक बहुत, सब भाग मिल्यो हा खेत ।। वह प्रसन्न होकर रंगमंडन नामक नट को आज्ञा और भी करते है बहे मनोरथ फल सुफल वह महोत्सव हेल । अलसाने कछु सुरत श्रम अरुन अघखुजे नैन जो मानी निज रिपुन सों अपुना बदलो शेत ।। | जगजीवन आगे लखहु दैन रमाचित चैन ।। अमा.-देव यह आप के योग्य संग्राम भूमि शरद देखि जब जग भयो चहुदेिसि महा उछाह । नहीं है -- तो हमहू को चाहिए मंगल सचाह ।। जिन निवातकवचन बध्यो कालकेय दिय दाहि । इस्से तुम वीररस का कोई अदभूत रूपक खोतकर | शिष तोख्यो रनभूमि जिन ये कौरव कह ताहि ।। मेरे गाधर इत्यादि साथियों को प्रसन्न करों' ऐसा अ.- वाह सुयोधन वाह ! क्यों न हो । कौनसा रूपक है (स्मर्ण करके) अरे जाना। | लहली बाहुबल जाति के ना तुष पुरापन राव । | कवि मुनि के सप शिशुन को पारि धाय सी प्रीति सो तुम जूआ खेति के जीत्वी सहित समाज ।। | सिखषत आप सरस्वती नित बहु विधि की नीति ।। अब भीलन की भांति इमि छिपि के चोरत गाय । ताही कुल में प्रगट मे नारायण गुणधाम । कुल गुरु ससि । तुव नीचपन लाख के रह्यो लजाय ।। लत्यो जीति बहु पादिगन दिन बादीश्वर नाम ।। अभय दियो जिन जग को पारि जोग संन्यास | जदपि चरित कुरुनाथ के ससि सिर देत मुक्काष । पे भय इक रवि को रही मंडशा भेदन बास ।। तरु राघरो विमल जस राखत ताहि उचाय ।। तिनके सुत सब गुन भरे अ.- (कुछ सोचकर) कुमार नगर के पास पास कविवर कांचन नाम । परे शास्त्रों को लेने रथ पर बैठकर गया है सो अब तक जाकी रसना क्यों नहीं आया विद्या गन की धाम ।। तो उस कवि का बनाया धनंजय विजय खेले। (उत्तरकुमार आता है) कु.-देव आपकी जाज्ञानुसार सब कुछ प्रस्तुत (नेपथ्य की ओर देखकर) यहां कोई है। है अब आप रथ पर विराजिए । (पारिपायक आता है) अ.-शस्त्र बांधकर रथ पर चढ़ना नाट्य पा.-कौन नियोग है काझए । करता है) स.- धनंजय विजय के खेशने में कुधाला नटवर्ग रनभूषन मूषित सुतन गत दूखन सब गात । अमा.-(विस्मय से अर्जुन को देखकर) सरद सूर सम घन रहित दूर प्रचंड लखात ।। पा. -जो आशा । (जाता है) (नायक से) सू.- (पश्चिम की ओर देखकर) दक्षिन सूरमहि मरदि हय गरजाह मेघ समान । सत्य प्रतिज्ञा को लिप्यो निशा अज्ञात तेजपुत्र अरजुन सोई रवि सो कदत लखात ।। उडि रच धुज आगे बढ़हि तुप यस विजय निसान ।। (विराट के अमात्य के साथ अर्जुन आता है) अ.-अमात्य ! अब हम लोग गऊ छुड़ाने जाते अ.- (उत्साह से) देव अनुकूल जान पड़ता है पासियों को धीरज दीजिए। है । आप नगर में जाकर गकहरण से व्याकुल नगर क्योंकि अमा.-महाराज जो आजा (जाता है)। भारतेन्दु समग्र ३२० अमा.-देव मनु सकत को बुलाओ।