पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३६३

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अ.- कुमार से) देखो गऊ दूर न निकल जाने फिर नेपथ्य में) पावे घोड़ों को कस के हाको ।। शिव तोषन खांडव दान सोई पाडव नाय । कु.- (रथ हांकना नाट्य करता है) धन बीचत पट्टा पड़े बजे काकं हाथ ।।। अ.-रथ का वेग देखकर) छाँट गए सब शस्त्र राबी धीरज उर धारे । लीका नहि लखिपरत चक्र की ऐसे धावत । बाह मात्र अवशेष द्गुन हिय क्रोध पसारे ।। ए दूर रहत तरु पृन्द छनक में आगे आपत ।। जाहि देखि निज कपट भूति हो प्रगट पुरारी । उदपि वायु बल पाइ परि आगे गति पावत । साहस पै बह रीभि रहे आपन पौहारी ।। पै हय निज सुर बेग पीछही मारि गिरायत ।। अरे यह निश्चय अन ही है. क्योंकि सर मरवित महिनूमाह मनाह सागर परम गभीर नव्यो गोपद मम छिन में । धाइ चाहि जब बेग गति । सीता विरह मिटावन की अदालत मति जिन में। मनु होड़ जीत हित चरन सों जानी जिन तन फसएस की का सारी । आगेहि मुख बढ़ियाजात अति ।। रायन गरब मिचाइ हुने निसिचर बल भारी ।। (नेपच्च की ओर देखकर) अरे अरे अहीरो सोच मत श्रीराम प्रान सम धीर वर भक्तराज मग्रीय प्रिय । करो क्योंकि सोई वायु तनय धज चाँठ के गर्राज रावत शव हिय ।। जनातौं बछरा करना करि महि तन नहि खै है। (दोनों सुनते हैं। जबलों जननी बाट देखि के नहिं डकरे ।। आयुष्मान जबलों व पीनहित ते नहि व्याकल है। भरी धीर रस सों कहत चतूर गूढ़ अति पाल । ताके हे गाय जीति के हम ले ऐहैं ।। पक्षपात सुत सो करत को यह तुम पै तात ।। (नेपथ्य में) बड़ी कृपा है। अ.-कमार ! यह तो ठीक ही है. पत्र सा कु.- महाराव ! अब ले लिया है कौरवों की पक्षपात करता है यह क्या कहते हो ! में आचार्य का तो सेना को क्योंकि पर ही है 1 हय खुररज सो नभ छयो वह आगे दरसात । (नेपथ्य में) मनू प्राचीन कपोलगत सान्द्र सुरुचि सरसात ।। करन! गही धन वेग. जाहू कप! आगे पाई। कविवर मद धारा तिया रमत रसिक जो पौन । द्रोन! शस्त्र भगुनाथ लहे सब रहो चढाई ।। सोई केनिमद गंधरी करत इतेही गौन ।। अश्वत्थामा ! काज सबै करूपति को साधहु । अ.-वह देखो कोरवों की सैना रिखा रही है ।। दरमख !दरसासन ! विकर्ण ! निज व्यूहन बांधत् ।। चपल चंवर पाहुनार चाह सित छत्र फिराही गंगा सूत शांतनु तनय पर भीष्म क्रोध सो धन गहत । उदाह गीधगन गगन ये भाले चमकाही ।। लांच शिव शिक्षित रिप सामुह तानि वान छाड़ो चहत।। घोर संच के शब्द भरत बन मगन इरावति । अ.-(भानन्द से) अहा! यह क्रराज अपनी यह देखो करसेन सामने भावति आति ।। सेन्य को बढ़ावा दे रहा है। (बाह की ओर देखकर उत्साह से) कु.-- देव ! में कौरव योधाओं का स्वरूप और बनधन धावत सदा पूर धूसर जो सोही । वल जानना चाहता हूँ। पंचाली गल मिलत हेतु अपलों ललचेही ।। अ.- देखो इसके ध्वजा के सर्प के चिन ही से जो जूवती जन बाहु वलय मिलि नाहि जाहीं । इसकी देवार्ड प्रगट होती है। रिपुगन ! ठाढ़े रही सोई मम भुज पारकाही ।। चन्द्र बंश को प्रथम कलह अंकर एहि मानी । (नेपथ्य में) जाके चित सौजन्य भाष नहिं नेक लखानो ।। फेरत धन टफारि दरप शिव सम दरसावत । विष जल आंगन अनेक भाति हमको उस दीनो । साहस को मनु रूप काल सम धुसह लखावत ।। सो यह आक्त दीठ खात्री करुपति मति हीनो ।। जय लक्ष्मी सम धीर धनुष धरि रोस बदायत । कु.-और यह उसके दाहिनी ओर कौन है । । को यह जो कुरूतिहि गिनत नहि इतही आवत ।। अ. (आश्चर्य से) जिन हिडम्ब अरि रिसि भरे लखन लाज भय खोय । क.-महाराव यह किसके बड़े गम्भीर वचन है ।। कृष्णापट खींच्यो निलब यह दस्सासन सोय ।। अ.- हमारे प्रथम गुरु कृपाचार्य के ।। क्र.-अब इससे बढ़कर और क्या साहस . (दोनों कान लगाकर सुनते है। धनंजय विजय ३२१