पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३६९

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अंत में नंदवंश ने पौरवों को निकालकर वहाँ आनी भोजन का केवल दो सेर सत्तू देता था । जयपताका उड़ाई । वरच सारे भारतवर्ष में अपना प्रवल प्रताप विस्तारित कर दिया । शकटार ने बहत दिन तक महामात्य का अधिकार भोगा था इससे यह अनादर उसके पक्ष में अत्यंत इतिहास ग्रंथों में लिखित है कि एक सौ अड़तीस वरस नंदवंश ने मगध देश का राज्य किया । इसा वंश दुखदाई हुआ । नित्य सत्तू का बरतन हाथ में लेकर अपने परिवार से कहता कि जो एक भा नंदवंश को में महानंद का जन्म हुआ । यह बड़ा प्रसिद्ध और अत्यंत प्रतापशाली राजा हुआ । जब जगद्विजयी | जड़ से नाश करने में समर्थ हो वह सत्तू खाय । मंत्री के इस वाक्य से दखित होकर उसके परिवार का कोई भी सिकंदर (अलक्षेद्र) ने भारतवर्ष पर चढ़ाई की थी तव असंख्य हाथी. बीस हजार सवार और दो लाख पैदल सत्तू न खाता । अन्त में कारागार की पीड़ा से एक एक करके उसक परिवार के सब लोग मर गए । लेकर महानंद ने उसके विरुद्ध प्रयाण किया था। मिदान यह कि भारतवर्ष में उस समय महानंदसा एक तो अपमान का दु:ख. दसर कुटुंब का नाश, प्रतापी और कोई राजा न था । इन दोनों कारणों से शकटार अत्यंत तनछीन मनमलीन दीनहीन हो गया । किंतु अपने मनसुबे का ऐसा पक्का महानंद के दो मंत्री थे । मुख्य का नाम शकटार था और दूसरे का राक्षस था । शकटार शुद्र और राक्षस था कि शत्रु से बदला लेने की इच्छा से अपने प्राण नहीं ब्राह्मण३ था । ये दोनों अत्यंत बुद्धिमान और त्याग किए और थोड़े-बहुत भोजन इत्यादि से शरीर को महाप्रतिभासंपन्न थे । कंवल भेद इतना था राक्षस धीर जीवित रखा । रात दिन इसी सोच में रहता कि किस और गंभीर था. उसके विरुद्ध शकटार अत्यंत उपाय से वह अपना बदला ले सकेगा। उद्धतस्वभाव था. यहाँ तक कि अपने प्राचीनपने के कहते हैं कि राजा महानंद एक दिन हाथ-मुंह धोकर अभिमान से कभी कभी यह राजा पर भी अपना प्रभुत्व | हँसते-हँसते जनाने में आ रहे थ । विचक्षणा नाम की जमाना चाहता । महानंद भी अत्यंत उग्र स्वभाव. एक दासी. जो राजा के मुंह लगने के कारण कुछ धृष्ट असहनशीला और क्रोधी था, जिसका परिणाम यह हुआ हो गई थी, राजा को हँसता देख कर हँस पड़ी. राजा कि महानंद ने अंत को शकटार को क्रोधांध होकर बड़े उसकी विठाई मे बहुत चिढ़े और उसमे पूछा --- तृ निविड़ बंदीखाने में कंद किया और सपरिवार उसके क्यों हंसी " उसन उत्तर दिया 'जिस बात पर 1 १. नंदवंश सम्मिलित क्षत्रियो का वंश था। ये लोग शुद्र क्षत्री नहीं थे २. सिकंदर के कान्यकुञ्च से आगे न बढ़ने से महानंद से उससे मुकाबिला नहीं हुआ । ३. बृहत्कथा में राक्षस मंत्री का नाम कहीं नहीं है, केवल वररुचि के एक सच्चे राक्षस से मैत्री की कथा यों लिखी है --एक बड़ा प्रचंड राक्षस पाटलिपुत्र में फिरा करता था । वह एक रात्रि वररुचि से मिला और पूछा कि 'इस नगर में कौन स्त्री सुंदर है तो वररुचि ने उत्तर दिया -- "जो जिसको रुचै वहीं सुंदर है ।" इस पर प्रसन्न होकर राक्षस ने उस से मित्रता की और कहा कि हम सब बात में तुम्हारी सहायता करेंगे और फिर सदा राजकाज में ध्यान में प्रत्यक्ष होकर राक्षस वररुचि की सहायता करता । ४. बृहत्कथा में यह कहानी और ही चाल पर लिखी है । वररुचि, व्याड़ि और इंद्रदत्त तीनों को गुरुदक्षिणा देने के हेतु करोड़ों रुपए के सोने की आवश्यकता हुई । तब इन लोगों ने सलाह को कि नंद (सत्यन राजा के पास चलकर उससे सोना ले । उन दिनों राजा का डेरा अयोध्या में था, ये तीनों ब्राह्मण वहाँ गए किंतु संयोग से उन्हीं दिनों राजा मर गया । तब आपस में सलाह करके इंद्रहत योगबल से अपना शरीर छोड़कर राजा के शरीर में चला गया. जिससे राजा फिर जी उठा । तभी से उसका नाम योगानंद हुआ । योगानंद ने वरचि को करोड़ रुपये देने की आज्ञा की । शकटार बड़ा बुधिन था : उसने सोचा कि राजा का मर कर जीना और एक बारगी एक अपरिचित को रूपया देना इसमें हो न हो कोई भेद है । ऐसा न हो कि अपना काम करके फिर राजा का शरीर छोड़कर यह चला जाय. यह सोचकर शकटार ने राज्य भर में जितने भी मुरदे मिले उनको जलवा "दिया. उसी में इंद्रदत्त का भी शरीर जग गया । जब व्याड़ि ने यह वृत्तात योगानंद से कहा तो यह सुनकर वह पहिले तो दुखी हुआ पर फिर वरसत्रि को अपना मंत्री बनाया । अंत में शकटार की उग्रता से संतप्त होकर उसको अधे कएँ में कैद किया । बृहत्कथा में शकटार के स्थान पर शकटान ना लिखा है । KO*** मुद्रा राक्षस ३२७